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रविवार, 16 जून 2019

कौन जाने? - बालकृष्ण राव

झुक रही है भूमि बाईं ओर, फ़िर भी
कौन जाने?
नियति की आँखें बचाकर,
आज धारा दाहिने बह जाए।

जाने 
किस किरण-शर के वरद आघात से
निर्वर्ण रेखा-चित्र, बीती रात का,
कब रँग उठे। 
सहसा मुखर हो
मूक क्या कह जाए?

'सम्भव क्या नहीं है आज-
लोहित लेखनी प्राची क्षितिज की,
कर रही है प्रेरणा, 
यह प्रश्न अंकित? 

कौन जाने
आज ही नि:शेष हों सारे 
सँजोये स्वप्न,
दिन की सिध्दियों में
कौन जाने
शेष फिर भी,
एक नूतन स्वप्न की सम्भावना रह जाए।

 - बालकृष्ण राव

5 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (17-06-2019) को "पितृत्व की छाँव" (चर्चा अंक- 3369) (चर्चा अंक- 3362) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    पिता दिवस की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  3. कौन जाने
    आज ही नि:शेष हों सारे
    सँजोये स्वप्न,
    दिन की सिध्दियों में
    कौन जाने
    शेष फिर भी,
    एक नूतन स्वप्न की सम्भावना रह जाए...बहुत ही सुंदर रचना

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