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बुधवार, 12 जून 2019

मैंने आहुति बन कर देखा - अज्ञेय

मैं कब कहता हूँ जग मेरी दुर्धर गति के अनुकूल बने, 
मैं कब कहता हूँ जीवन-मरू नंदन-कानन का फूल बने? 
काँटा कठोर है, तीखा है, उसमें उसकी मर्यादा है, 
मैं कब कहता हूँ वह घटकर प्रांतर का ओछा फूल बने?  

मैं कब कहता हूँ मुझे युद्ध में कहीं न तीखी चोट मिले? 
मैं कब कहता हूँ प्यार करूँ तो मुझे प्राप्ति की ओट मिले? 
मैं कब कहता हूँ विजय करूँ मेरा ऊँचा प्रासाद बने? 
या पात्र जगत की श्रद्धा की मेरी धुंधली-सी याद बने?  

पथ मेरा रहे प्रशस्त सदा क्यों विकल करे यह चाह मुझे? 
नेतृत्व न मेरा छिन जावे क्यों इसकी हो परवाह मुझे? 
मैं प्रस्तुत हूँ चाहे मेरी मिट्टी जनपद की धूल बने- 
फिर उस धूली का कण-कण भी मेरा गति-रोधक शूल बने!  

अपने जीवन का रस देकर जिसको यत्नों से पाला है- 
क्या वह केवल अवसाद-मलिन झरते आँसू की माला है? 
वे रोगी होंगे प्रेम जिन्हें अनुभव-रस का कटु प्याला है- 
वे मुर्दे होंगे प्रेम जिन्हें सम्मोहन कारी हाला है  

मैंने विदग्ध हो जान लिया, अन्तिम रहस्य पहचान लिया- 
मैंने आहुति बन कर देखा यह प्रेम यज्ञ की ज्वाला है! 
मैं कहता हूँ, मैं बढ़ता हूँ, मैं नभ की चोटी चढ़ता हूँ 
कुचला जाकर भी धूली-सा आंधी सा और उमड़ता हूँ  

मेरा जीवन ललकार बने, असफलता ही असि-धार बने 
इस निर्मम रण में पग-पग का रुकना ही मेरा वार बने! 
भव सारा तुझपर है स्वाहा सब कुछ तप कर अंगार बने- 
तेरी पुकार सा दुर्निवार मेरा यह नीरव प्यार बने

- अज्ञेय


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