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सोमवार, 1 अप्रैल 2019

जिंदगी फूस की झोपड़ी - उदयभानु ‘हंस’

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ज़िंदगी फूस की झोंपड़ी है,
रेत की नींव पर जो खड़ी है।

पल दो पल है जगत का तमाशा,
जैसे आकाश में फुलझ़ड़ी है।

कोई तो राम आए कहीं से,
बन के पत्थर अहल्या खड़ी है।

सिर छुपाने का बस है ठिकाना,
वो महल है कि या झोंपड़ी है।

धूप निकलेगी सुख की सुनहरी,
दुख का बादल घड़ी दो घड़ी है।

यों छलकती है विधवा की आँखें.,
मानो सावन की कोई झ़ड़ी है।

हाथ बेटी के हों कैसे पीले
झोंपड़ी तक तो गिरवी पड़ी है।

जिसको कहती है ये दुनिया शादी,
दर असल सोने की हथकड़ी है।

देश की दुर्दशा कौन सोचे,
आजकल सबको अपनी पड़ी है।

मुँह से उनके है अमृत टपकता,
किंतु विष से भरी खोपड़ी है।

विश्व के 'हंस' कवियों से पूछो,
दर्द की उम्र कितनी बड़ी है।
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- उदयभानु ‘हंस’


6 टिप्‍पणियां:

  1. देश की दुर्दशा कौन सोचे,
    आजकल सबको अपनी पड़ी है।

    मुँह से उनके है अमृत टपकता,
    किंतु विष से भरी खोपड़ी है।

    विश्व के 'हंस' कवियों से पूछो,
    दर्द की उम्र कितनी बड़ी है।
    बहुत सुंदर।

    जवाब देंहटाएं
  2. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (03-04-2019) को "मौसम सुहाना हो गया है" (चर्चा अंक-3294) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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