ज्ञान ध्यान कुछ काम न आए
हम तो जीवन-भर अकुलाए ।
पथ निहारते दृग पथराए
हर आहट पर मन भरमाए ।
झूठे जग में सच्चे सुख की
क्या तो कोई आस लगाए ।
देवालय हो या मदिरालय
जहाँ गए जाकर पछताए ।
तड़क-भड़क संतो की ऐसी
दुनियादार देख शरमाए ।
माल लूट का सबने बाँटा
हम ही पड़े रहें अलसाए ।
जो बिक जाता धन्य वही है
जो न बिके मूरख कहलाए ।
टिकट बाँटने के नाटक में
धूर्त महानायक बन छाए ।
शिष्टाचार भ्रष्टता दोनों—
ने अपने सब द्वैत मिटाए ।
जहाँ बिछी शतरंज वही ही
शातिर बैठे जाल बिछाए ।
अब के यूँ खैरात बँटी है
सारा किस्सा दिल बहलाए ।
दुर्जन पार लगाता नैया
सज्जन किसका काम बनाए ।
राही तो सीधे-सादे है
कौन भला क्या उनसे पाए ।
हम तो जीवन-भर अकुलाए ।
पथ निहारते दृग पथराए
हर आहट पर मन भरमाए ।
झूठे जग में सच्चे सुख की
क्या तो कोई आस लगाए ।
देवालय हो या मदिरालय
जहाँ गए जाकर पछताए ।
तड़क-भड़क संतो की ऐसी
दुनियादार देख शरमाए ।
माल लूट का सबने बाँटा
हम ही पड़े रहें अलसाए ।
जो बिक जाता धन्य वही है
जो न बिके मूरख कहलाए ।
टिकट बाँटने के नाटक में
धूर्त महानायक बन छाए ।
शिष्टाचार भ्रष्टता दोनों—
ने अपने सब द्वैत मिटाए ।
जहाँ बिछी शतरंज वही ही
शातिर बैठे जाल बिछाए ।
अब के यूँ खैरात बँटी है
सारा किस्सा दिल बहलाए ।
दुर्जन पार लगाता नैया
सज्जन किसका काम बनाए ।
राही तो सीधे-सादे है
कौन भला क्या उनसे पाए ।
- बालस्वरूप राही
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (12-04-2019) को "फिर से चौकीदार" (चर्चा अंक-3303) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बेहतरीन
जवाब देंहटाएंसादर
बाल स्वरुप राही की कविताएँ तो हम 50-60 साल पहले भी पढ़ते थे. साप्ताहिक हिंदुस्तान के अंकों में उनकी सीधी-सादी, सच्ची, कविताओं का हमें इंतज़ार रहता था. तुमने पुरानी यादें ताज़ा कर दीं रवीन्द्र. लेकिन उनकी यह कविता तो आज का चुनावी माहौल बयाँ कर रही है.
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