खोयी आँखें लौटीं:
धरी मिट्टी का लोंदा
रचने लगा कुम्हार खिलौने।
मूर्ति पहली यह
कितनी सुन्दर! और दूसरी-
अरे रूपदर्शी! यह क्या है-
यह विरूप विद्रूप डरौना?
“मूर्तियाँ ही हैं दोनों,
दोनों रूप: जगह दोनों की बनी हुई है।
मेले में दोनों जावेंगी।
यह भी बिकाऊ है,
वह भी बिकाऊ है।
“टिकाऊ-हाँ, टिकाऊ
यह नहीं है
वह भी नहीं है,
मगर टिकाऊ तो
मैं भी नहीं हूँ-
तुम भी नहीं हो।”
रुका वह एक क्षण
आँखें फिर खोयीं, फिर लौटीं,
फिर बोला वह:
“होती बड़े दुःख की कहानी यह
अन्त में अगर मैं
यह भी न कह सकता, कि
टिकाऊ तो जिस पैसे पर यह-वह दोनों बिकाऊ हैं
(और हम-तुम भी क्या नहीं हैं?)
वह भी नहीं है:
बल्कि वही तो
असली बिकाऊ है।”
धरी मिट्टी का लोंदा
रचने लगा कुम्हार खिलौने।
मूर्ति पहली यह
कितनी सुन्दर! और दूसरी-
अरे रूपदर्शी! यह क्या है-
यह विरूप विद्रूप डरौना?
“मूर्तियाँ ही हैं दोनों,
दोनों रूप: जगह दोनों की बनी हुई है।
मेले में दोनों जावेंगी।
यह भी बिकाऊ है,
वह भी बिकाऊ है।
“टिकाऊ-हाँ, टिकाऊ
यह नहीं है
वह भी नहीं है,
मगर टिकाऊ तो
मैं भी नहीं हूँ-
तुम भी नहीं हो।”
रुका वह एक क्षण
आँखें फिर खोयीं, फिर लौटीं,
फिर बोला वह:
“होती बड़े दुःख की कहानी यह
अन्त में अगर मैं
यह भी न कह सकता, कि
टिकाऊ तो जिस पैसे पर यह-वह दोनों बिकाऊ हैं
(और हम-तुम भी क्या नहीं हैं?)
वह भी नहीं है:
बल्कि वही तो
असली बिकाऊ है।”
- अज्ञेय
वाह बहुत बढ़िया।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (02-04-2019) को "चेहरे पर लिखा अप्रैल फूल होता है" (चर्चा अंक-3293) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
अन्तर्राष्ट्रीय मूख दिवस की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" मंगलवार 02 अप्रैल 2019 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन आदरणीय
जवाब देंहटाएंबहुत सटीक सार्थक एवं सारगर्भित...
जवाब देंहटाएंवाह!!!