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रविवार, 16 दिसंबर 2018

हरी-हरी दूब पर - अटल बिहारी वाजपेयी

गूगल से साभार 
हरी-हरी दूब पर 
ओस की बूंदे 
अभी थी,
अभी नही है.
ऐसी खुशियाँ 
जो हमेशा हमारा साथ दें 
कभी नही थी,
कही नही है.


क्कायर की कोख से 

फूटा बाल सूर्य,
जब पूरब की गोद में 
पाँव फैलाने लगा,
तो मेरी बगीची का 
पत्ता-पत्ता जगमगाने लगा,
मैं उगते हुए सूर्य को नमस्कार करूं 
या उसके ताप से भाप बनी,
ओस की बूंदों को ढूँढू ?


सूर्य एक सत्य है 

जिसे झुठलाया नही जा सकता 
मगर ओस भी तो एक सच्चाई है 
यह बात अलग है कि ओस क्षणिक है 
क्यों न मैं क्षण-क्षण को जिऊँ ?
कण-कण में बिखरे सौन्दर्य को पीऊँ ?


सूर्य तो फिर भी उगेगा,

धुप तो फिरभी खिलेगी,
लेकिन मेरी बगीची की
हरी-हरी दूब पर,
ओस की बूंद 
हर मौसम में नही मिलेगी.
                                     - अटल बिहारी वाजपेयी 

4 टिप्‍पणियां:

  1. धन्यवाद रवीन्द्र जी -- शुक्रिया इस अनमोल धरोहर को संजोने के लिए |इस रचना में अनमोल दर्शन है जीवन का | सस्नेह आभार -

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    उत्तर
    1. जी आभार ...अपनी बहुमूल्य प्रतिक्रिया देने के लिए.....सादर

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