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मंगलवार, 4 जून 2019

तप रे! - सुमित्रानंदन पंत

तप रे, मधुर मन!  

विश्व-वेदना में तप प्रतिपल, 
जग-जीवन की ज्वाला में गल, 
बन अकलुष, उज्जवल औ\' कोमल 
तप रे, विधुर-विधुर मन!  

अपने सजल-स्वर्ण से पावन 
रच जीवन की पूर्ति पूर्णतम 
स्थापित कर जग अपनापन, 
ढल रे, ढल आतुर मन!  

तेरी मधुर मुक्ति ही बन्धन, 
गंध-हीन तू गंध-युक्त बन, 
निज अरूप में भर स्वरूप, मन 
मूर्तिमान बन निर्धन! 
गल रे, गल निष्ठुर मन!
- सुमित्रानंदन पंत

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (07-06-2019) को "हमारा परिवेश" (चर्चा अंक- 3359) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. उत्कृष्ट¡¡¡ पंत जी प्रकृति से जब आध्यात्म की तरफ मुड़ गये तब का उच्च स्तरीय लेखन अद्भुत अनुपम।

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  3. मन को निर्मल बनाने हेतु सुंदर प्रार्थना..

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