फ़ॉलोअर

बुधवार, 16 अक्टूबर 2019

बेटी की किलकारी - ताराप्रकाश जोशी

बेटी की किलकारी
कन्या भ्रूण अगर मारोगे
मां दुरगा का शाप लगेगा।
बेटी की किलकारी के बिन
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।
जिस घर बेटी जन्म न लेती
वह घर सभ्य नहीं होता है।
बेटी के आरतिए के बिन
पावन यज्ञ नहीं होता है।
यज्ञ बिना बादल रूठेंगे
सूखेगी वरषा की रिमझिम।
बेटी की पायल के स्वर बिन
सावन-सावन नहीं रहेगा।
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।

जिस घर बेटी जन्म न लेती
उस घर कलियां झर जाती है।
खुशबू निरवासित हो जाती
गोपी गीत नहीं गाती है।
गीत बिना बंशी चुप होगी
कान्हा नाच नहीं पाएगा।
बिन राधा के रास न होगा
मधुबन-मधुबन नहीं रहेगा।
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।

जिस घर बेटी जन्म न लेती,
उस घर घड़े रीत जाते हैं।
अन्नपूरणा अन्न न देती
दुरभिक्षों के दिन आते हैं।
बिन बेटी के भोर अलूणी
थका-थका दिन सांझ बिहूणी।
बेटी बिना न रोटी होगी
प्राशन-प्राशन नहीं रहेगा
आंगन-आंगन नहीं रहेगा

जिस घर बेटी जन्म न लेती
उसको लक्षमी कभी न वरती।
भव सागर के भंवर जाल में
उसकी नौका कभी न तरती।
बेटी की आशीषों में ही
बैकुंठों का वासा होता।
बेटी के बिन किसी भाल का
चंदन-चंदन नहीं रहेगा।
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।

जिस घर बेटी जन्म न लेती
वहां शारदा कभी न आती।
बेटी की तुतली बोली बिन
सारी कला विकल हो जाती।
बेटी ही सुलझा सकती है,
माता की उलझी पहेलियां।
बेटी के बिन मां की आंखों
अंजन-अंजन नहीं रहेगा।
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।

जिस घर बेटी जन्म न लेगी
राखी का त्यौहार न होगा।
बिना रक्षाबंधन भैया का
ममतामय संसार न होगा।
भाषा का पहला स्वर बेटी
शब्द-शब्द में आखर बेटी।
बिन बेटी के जगत न होगा,
सजॅन, सजॅन नहीं रहेगा।
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।

जिस घर बेटी जन्म न लेती
उसका निष्फल हर आयोजन।
सब रिश्ते नीरस हो जाते
अथॅहीन सारे संबोधन।
मिलना-जुलना आना-जाना
यह समाज का ताना-बाना।
बिन बेटी रुखे अभिवादन
वंदन-वंदन नहीं रहेगा।
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।

- ताराप्रकाश जोशी

मंगलवार, 15 अक्टूबर 2019

एक बरस बीत गया

झुलासाता जेठ मास  
शरद चांदनी उदास  
सिसकी भरते सावन का   
अंतर्घट रीत गया  
एक बरस बीत गया  

सीकचों मे सिमटा जग  
किंतु विकल प्राण विहग  
धरती से अम्बर तक  
गूंज मुक्ति गीत गया  
एक बरस बीत गया  

पथ निहारते नयन   
गिनते दिन पल छिन  
लौट कभी आएगा  
मन का जो मीत गया  
एक बरस बीत गया

~ अटल बिहारी वाजपेयी


गुरुवार, 10 अक्टूबर 2019

एक क्रिकेट मैच को देखते हुए

मैं जानता था कि
वे हार रहे थे!
मैं निश्चिंत होकर
अपने बाकी पड़े
कामों को
निपटा सकता था
मगर
उन्हें हारते हुये
देखने के सुख से
वंचित होना
नहीं चाहता था।
और टेलीविजन स्क्रीन पर
आंखें गड़ाये
हर गेंद की
करामात
देखता रहा
सब कुछ
ताक पर रखकर।

वे जानते थे कि
वे हार रहे हैं
फिर भी वे
हर गेंद पर
जूझते रहे
अपनी सारी
ताकत को
झोंकते हुए?

क्योंकि वे 
मानते थे
कि 
हार मानना ही
मृत्यु है

~ उदय भान मिश्र