फ़ॉलोअर

बुधवार, 31 जुलाई 2019

क्या करेगी चांदनी - हुल्लड़ मुरादाबादी

चांद औरों पर मरेगा क्या करेगी चांदनी
प्यार में पंगा करेगा क्या करेगी चांदनी

चांद से हैं खूबसूरत भूख में दो रोटियाँ
कोई बच्चा जब मरेगा क्या करेगी चांदनी

डिग्रियाँ हैं बैग में पर जेब में पैसे नहीं
नौजवाँ फ़ाँके करेगा क्या करेगी चांदनी

जो बचा था खून वो तो सब सियासत पी गई
खुदकुशी खटमल करेगा क्या करेगी चांदनी

दे रहे चालीस चैनल नंगई आकाश में
चाँद इसमें क्या करेगा क्या करेगी चांदनी

साँड है पंचायती ये मत कहो नेता इसे
देश को पूरा चरेगा क्या करेगी चांदनी

एक बुलबुल कर रही है आशिक़ी सय्याद से
शर्म से माली मरेगा क्या करेगी चांदनी

लाख तुम फ़सलें उगा लो एकता की देश में
इसको जब नेता चरेगा क्या करेगी चांदनी

ईश्वर ने सब दिया पर आज का ये आदमी
शुक्रिया तक ना करेगा क्या करेगी चांदनी

गौर से देखा तो पाया प्रेमिका के मूँछ थी
अब ये "हुल्लड़" क्या करेगा, क्या करेगी चांदनी

~ हुल्लड़ मुरादाबादी

रविवार, 28 जुलाई 2019

साँझ के बादल - धर्मवीर भारती

ये अनजान नदी की नावें 
जादू के-से पाल 
उड़ाती 
आती  
मंथर चाल।

नीलम पर किरनों 
की साँझी 
एक न डोरी 
एक न माँझी ,
फिर भी लाद निरंतर लाती 
सेंदुर और प्रवाल!

कुछ समीप की 
कुछ सुदूर की,
कुछ चन्दन की 
कुछ कपूर की,
कुछ में गेरू, कुछ में रेशम 
कुछ में केवल जाल।

ये अनजान नदी की नावें 
जादू के-से पाल 
उड़ाती 
आती  
मंथर चाल।

- धर्मवीर भारती

गुरुवार, 18 जुलाई 2019

मेरे पिता को कभी किसी द्वंद्व ने नहीं घेरा - अमिताभ बच्चन

मेरे पिता को कभी किसी द्वंद्व ने नहीं घेरा
जैसे कि पहले नहा लूँ या पहले खा लूँ
घूस लूँ या न लूँ
होली में गाँव जाऊँ या न जाऊँ
खाने के बीच पानी पीऊँ या नहीं
खद्दर पहनना छोड़ दूँ या पहनता रहूँ
पहले बिना माँ-बाप की भतीजी का ब्याह करूँ
या साइकिल खरीदूँ
दो दिन पहन चुका कपड़ा तीसरे दिन भी पहन लूँ या नहीं पहनूँ
शाम में खुले आकाश के नीचे बैठूँ या न बैठूँ
कुर्सी ख़ुद उठा लाऊँ या किसी से मँगवा लूँ
पड़ोस में अपनी ही जात वालों को बसाऊँ या न बसाऊँ
डायरी लिखता रहूँ या छोड़ दूँ
भिण्डी पाँच रूपए सेर है
डायरी में दर्ज करूँ न करूँ
गर्भ-निरोध का आपरेशन करवा लूँ या रहने दूँ
संशय से परे
उन्होंने कुछ अच्छा किया, कुछ बुरा
मैं सिर्फ संशयों में घिरा रहा
कवि मौन मुझे देखता रहा, देखता रहा
- अमिताभ बच्चन

मंगलवार, 9 जुलाई 2019

कोई सागर नहीं है - भवानीप्रसाद मिश्र

कोई सागर नहीं है अकेलापन
न वन है
एक मन है अकेलापन
जिसे समझा जा सकता है
आर पार जाया जा सकता है जिसके
दिन में सौ बार

कोई सागर नहीं है
न वन है
बल्कि एक मन है 
हमारा तुम्हारा अकेलापन!

 - भवानीप्रसाद मिश्र

सोमवार, 1 जुलाई 2019

अनसुने अध्यक्ष हम - किशन सरोज

बाँह फैलाए खड़े, 
निरुपाय, तट के वृक्ष हम
ओ नदी! दो चार पल, ठहरो हमारे पास भी ।

चाँद को छाती लगा
फिर सो गया नीलाभ जल
जागता मन के अंधेरों में
घिरा निर्जन महल

और इस निर्जन महल के 
एक सूने कक्ष हम
ओ भटकते जुगनुओ! उतरो हमारे पास भी ।

मोह में आकाश के
हम जुड़ न पाए नीड़ से
ले न पाए हम प्रशंसा-पत्र
कोई भीड़ से

अश्रु की उजड़ी सभा के, 
अनसुने अध्यक्ष हम
ओ कमल की पंखुरी! बिखरो हमारे पास भी ।

लेखनी को हम बनाए
गीतवंती बाँसुरी
ढूंढते परमाणुओं की
धुंध में अलकापुरी

अग्नि-घाटी में भटकते, 
एक शापित यक्ष हम
ओ जलदकेशी प्रिये! सँवरो हमारे पास भी ।

 - किशन सरोज

कुछ क्षणिकाएँ - धनंजय सिंह

दायित्व

पंखों में
बांधकर पहाड़
उड़ने को कह दिया गया।

ध्वजारोहण

शौर्य
शांति
और समृध्दि को
काले पहिए से बांधकर
बाँस पर
लटका दिया गया है मेरे देश में!

सूर्यास्त

दीक्षान्त समारोह में
काला चोगा पहनकर
सूरज
नौकरी की खोज में चला

बदलाव

जब कभी कोई विस्तार
मेरी मुट्ठियों में बंद हुआ
एक तेज़ धार वाले ब्लेड ने
अँगुलियाँ लहू-लुहान कर दीं
मेरा छोटा
ऐसे कई ब्लेड
खेल-खेल में चबाकर निगल जाता था
और अब
मैं इन ब्लेडों को
अपनी नसों में घूमते महसूस करता हूँ
शायद
अब वे मेरे
श्वेत और लाल
रक्त-कणों में बदल गए हैं

चेहरे

भीड़ को
अपना चेहरा सौंपकर
मैंने पाया-
वह गूंगा हो गया है
और मुस्कुराती हुई भीड़
अपने हाथों से
‘मुर्दाबाद’ कहने में जुटी है

- धनंजय सिंह