हम को यूँ ही प्यासा छोड़
सामने चढ़ता दरिया छोड़
जीवन का क्या करना मोल
महंगा ले-ले, सस्ता छोड़
अपने बिखरे रूप समेट
अब टूटा आईना छोड़
चलने वाले रौंद न दें
पीछे डगर में रुकना छोड़
हो जाएगा छोटा क़द
ऊँचाई पर चढ़ना छोड़
हमने चलना सीख लिया
यार, हमारा रस्ता छोड़
ग़ज़लें सब आसेबी हैं
तनहाई में पढ़ना छोड़
दीवानों का हाल न पूछ
बाहर आजा परदा छोड़
बेकल अपने गाँव में बैठ
शहरों-शहरों बिकना छोड़
- - बेकल उत्साही
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (03-06-2019) को
" नौतपा का प्रहार " (चर्चा अंक- 3355) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
…
अनीता सैनी
बेहद उम्दा
जवाब देंहटाएंउम्मदा
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति।।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन।
बेकल उत्साही को मुशायरे में मैंने कई बार रू-ब-रू सुना है. मीठी आवाज़ में तरन्नुम के साथ वो सरल भाषा में बहुत गहरी बात कह जाते थे.
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