क़दम उसी मोड़ पर जमे हैं
नज़र समेटे हुए खड़ा हूँ
नज़र समेटे हुए खड़ा हूँ
जुनूँ ये मजबूर कर रहा है पलट के देखूँ
ख़ुदी ये कहती है मोड़ मुड़ जा
अगरचे एहसास कह रहा है
खुले दरीचे के पीछे दो आँखें झाँकती हैं
अभी मेरे इंतज़ार में वो भी जागती है
कहीं तो उस के गोशा-ए-दिल में दर्द होगा
उसे ये ज़िद है कि मैं पुकारूँ
मुझे तक़ाज़ा है वो बुला ले
क़दम उसी मोड़ पर जमे हैं
नज़र समेटे हुए खड़ा हूँ
-गुलज़ार
व्वाहहहह...
जवाब देंहटाएंसादर...
अलग ही अंदाज....वाह
जवाब देंहटाएंBahut khoob likha hai
जवाब देंहटाएंबेहतरीन
जवाब देंहटाएंबहुत कमाल की नज़्म है गुलज़ार साहब की ...
जवाब देंहटाएंपाश के मज़ा अ गया ...
बेहतरीन नज़्म
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