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गुरुवार, 17 जनवरी 2019

मुहब्बतों के दिनों की यही ख़राबी है -वसीम बरेलवी

गूगल से साभार 

तुम्हारी राह में मिट्टी के घर नहीं आते
इसीलिए तो तुम्हें हम नज़र नहीं आते

मुहब्बतों के दिनों की यही ख़राबी है
ये रूठ जाएँ तो फिर लौटकर नहीं आते

जिन्हें सलीका है तहज़ीब-ए-ग़म समझने का
उन्हीं के रोने में आँसू नज़र नहीं आते

ख़ुशी की आँख में आँसू की भी जगह रखना
बुरे ज़माने कभी पूछकर नहीं आते

बिसाते -इश्क पे बढ़ना किसे नहीं आता
यह और बात कि बचने के घर नहीं आते

'वसीम' जहन बनाते हैं तो वही अख़बार
जो ले के एक भी अच्छी ख़बर नहीं आते
-वसीम बरेलवी

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "मुखरित मौन में" शनिवार 19 जनवरी 2019 को साझा की गई है......... https://mannkepaankhi.blogspot.com/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

    जवाब देंहटाएं
  2. "मुखरित मौन में" 'मुहब्बतों के दिनों की यही ख़राबी है' -वसीम बरेलवी जी की रचना साझा करने के लिए आभार.....सहृदय

    जवाब देंहटाएं
  3. वसीम बरेलवी जी की ग़ज़लगोई का जवाब नहीं..।

    आभार

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. वसीम बरेलवी जी की ग़ज़लगोई का जवाब नहीं....सो तो हैं .......
      आभार जी .....आपका सादर

      हटाएं