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शनिवार, 1 मई 2021

सूने घर में / सत्यनारायण

सूने घर में
कोने-कोने
मकड़ी बुनती जाल

अम्मा बिन
आँगन सूना है
बाबा बिन दालान
चिट्ठी आई है
बहिना की
साँसत में है जान,
नित-नित
नए तगादे भेजे
बहिना की ससुराल ।

भ‍इया तो 
परदेश विराजे
कौन करे अब चेत
साहू के खाते में
बंधक है
बीघा भर खेत,
शायद
कुर्की ज़ब्ती भी
हो जाए अगले साल ।

ओर छोर
छप्पर का टपके
उनके काली रात
शायद अबकी
झेल न पाए
भादों की बरसात
पुरखों की
यह एक निशानी
किसे सुनाए हाल ।

फिर भी
एक दिया जलता है
जब साँझी के नाम
लगता
कोई पथ जोहे
खिड़की के पल्ले थाम,
बड़ी-बड़ी दो आँखें
पूछें
फिर-फिर वही सवाल ।

सूने घर में
कोने-कोने
मकड़ी बुनती जाल ।

- सत्यनारायण

बुधवार, 16 अक्तूबर 2019

बेटी की किलकारी - ताराप्रकाश जोशी

बेटी की किलकारी
कन्या भ्रूण अगर मारोगे
मां दुरगा का शाप लगेगा।
बेटी की किलकारी के बिन
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।
जिस घर बेटी जन्म न लेती
वह घर सभ्य नहीं होता है।
बेटी के आरतिए के बिन
पावन यज्ञ नहीं होता है।
यज्ञ बिना बादल रूठेंगे
सूखेगी वरषा की रिमझिम।
बेटी की पायल के स्वर बिन
सावन-सावन नहीं रहेगा।
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।

जिस घर बेटी जन्म न लेती
उस घर कलियां झर जाती है।
खुशबू निरवासित हो जाती
गोपी गीत नहीं गाती है।
गीत बिना बंशी चुप होगी
कान्हा नाच नहीं पाएगा।
बिन राधा के रास न होगा
मधुबन-मधुबन नहीं रहेगा।
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।

जिस घर बेटी जन्म न लेती,
उस घर घड़े रीत जाते हैं।
अन्नपूरणा अन्न न देती
दुरभिक्षों के दिन आते हैं।
बिन बेटी के भोर अलूणी
थका-थका दिन सांझ बिहूणी।
बेटी बिना न रोटी होगी
प्राशन-प्राशन नहीं रहेगा
आंगन-आंगन नहीं रहेगा

जिस घर बेटी जन्म न लेती
उसको लक्षमी कभी न वरती।
भव सागर के भंवर जाल में
उसकी नौका कभी न तरती।
बेटी की आशीषों में ही
बैकुंठों का वासा होता।
बेटी के बिन किसी भाल का
चंदन-चंदन नहीं रहेगा।
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।

जिस घर बेटी जन्म न लेती
वहां शारदा कभी न आती।
बेटी की तुतली बोली बिन
सारी कला विकल हो जाती।
बेटी ही सुलझा सकती है,
माता की उलझी पहेलियां।
बेटी के बिन मां की आंखों
अंजन-अंजन नहीं रहेगा।
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।

जिस घर बेटी जन्म न लेगी
राखी का त्यौहार न होगा।
बिना रक्षाबंधन भैया का
ममतामय संसार न होगा।
भाषा का पहला स्वर बेटी
शब्द-शब्द में आखर बेटी।
बिन बेटी के जगत न होगा,
सजॅन, सजॅन नहीं रहेगा।
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।

जिस घर बेटी जन्म न लेती
उसका निष्फल हर आयोजन।
सब रिश्ते नीरस हो जाते
अथॅहीन सारे संबोधन।
मिलना-जुलना आना-जाना
यह समाज का ताना-बाना।
बिन बेटी रुखे अभिवादन
वंदन-वंदन नहीं रहेगा।
आंगन-आंगन नहीं रहेगा।

- ताराप्रकाश जोशी

मंगलवार, 15 अक्तूबर 2019

एक बरस बीत गया

झुलासाता जेठ मास  
शरद चांदनी उदास  
सिसकी भरते सावन का   
अंतर्घट रीत गया  
एक बरस बीत गया  

सीकचों मे सिमटा जग  
किंतु विकल प्राण विहग  
धरती से अम्बर तक  
गूंज मुक्ति गीत गया  
एक बरस बीत गया  

पथ निहारते नयन   
गिनते दिन पल छिन  
लौट कभी आएगा  
मन का जो मीत गया  
एक बरस बीत गया

~ अटल बिहारी वाजपेयी


गुरुवार, 10 अक्तूबर 2019

एक क्रिकेट मैच को देखते हुए

मैं जानता था कि
वे हार रहे थे!
मैं निश्चिंत होकर
अपने बाकी पड़े
कामों को
निपटा सकता था
मगर
उन्हें हारते हुये
देखने के सुख से
वंचित होना
नहीं चाहता था।
और टेलीविजन स्क्रीन पर
आंखें गड़ाये
हर गेंद की
करामात
देखता रहा
सब कुछ
ताक पर रखकर।

वे जानते थे कि
वे हार रहे हैं
फिर भी वे
हर गेंद पर
जूझते रहे
अपनी सारी
ताकत को
झोंकते हुए?

क्योंकि वे 
मानते थे
कि 
हार मानना ही
मृत्यु है

~ उदय भान मिश्र

मंगलवार, 27 अगस्त 2019

एक तुम हो - माखनलाल चतुर्वेदी

गगन पर दो सितारे: एक तुम हो,
धरा पर दो चरण हैं: एक तुम हो,
‘त्रिवेणी’ दो नदी हैं! एक तुम हो, 
हिमालय दो शिखर है: एक तुम हो, 
रहे साक्षी लहरता सिंधु मेरा, 
कि भारत हो धरा का बिंदु मेरा । 

कला के जोड़-सी जग-गुत्थियाँ ये, 
हृदय के होड़-सी दृढ वृत्तियाँ ये, 
तिरंगे की तरंगों पर चढ़ाते, 
कि शत-शत ज्वार तेरे पास आते । 

तुझे सौगंध है घनश्याम की आ, 
तुझे सौगंध भारत-धाम की आ, 
तुझे सौगंध सेवा-ग्राम की आ, 
कि आ, आकर उजड़तों को बचा, आ । 
तुम्हारी यातनाएँ और अणिमा, 
तुम्हारी कल्पनाएँ और लघिमा, 
तुम्हारी गगन-भेदी गूँज, गरिमा, 
तुम्हारे बोल! भू की दिव्य महिमा
तुम्हारी जीभ के पैंरो महावर, 
तुम्हारी अस्ति पर दो युग निछावर । 
रहे मन-भेद तेरा और मेरा, अमर हो देश का कल का सबेरा, 
कि वह कश्मीर, वह नेपाल; गोवा; कि साक्षी वह जवाहर, यह विनोबा,
प्रलय की आह युग है, वाह तुम हो, 
जरा-से किंतु लापरवाह तुम हो।

रचनाकाल: खण्डवा-१९४०

- माखनलाल चतुर्वेदी

शनिवार, 24 अगस्त 2019

मेरा रँग दे बसन्ती चोला ~ पीयूष मिश्रा

मेरा रँग दे बसन्ती चोला, माई...

मेरे चोले में तेरे माथे का पसीना है
और थोड़ी सी तेरे आँचल की बूँदें हैं
और थोड़ी सी है तेरे काँपते बूढ़े हाथों की गर्मी
और थोड़ा सा है तेरी आँखों की सुर्खी का शोला

इस शोले को जो देखा तो आज ये
लाल तेरा बोला अरे बोला --

मेरा रँग दे बसंती चोला, माई...

~ पीयूष मिश्रा

बुधवार, 21 अगस्त 2019

मैं कहीं और भी होता हूँ ~ कुंवर नारायण

मैं कहीं और भी होता हूँ
जब कविता लिखता

कुछ भी करते हुए
कहीं और भी होना
धीरे-धीरे मेरी आदत-सी बन चुकी है

हर वक़्त बस वहीं होना
जहाँ कुछ कर रहा हूँ
एक तरह की कम-समझी है
जो मुझे सीमित करती है

ज़िन्दगी बेहद जगह मांगती है
फैलने के लिए

इसे फैसले को ज़रूरी समझता हूँ
और अपनी मजबूरी भी
पहुंचना चाहता हूँ अन्तरिक्ष तक
फिर लौटना चाहता हूँ सब तक
जैसे लौटती हैं
किसी उपग्रह को छूकर
जीवन की असंख्य तरंगें...

~ कुंवर नारायण