बुधवार, 29 मई 2019

पर आँखें नहीं भरीं - शिवमंगल सिंह 'सुमन'

कितनी बार तुम्हें देखा 
पर आँखें नहीं भरीं।  

सीमित उर में चिर-असीम 
सौंदर्य समा न सका 
बीन-मुग्ध बेसुध-कुरंग 
मन रोके नहीं रुका 
यों तो कई बार पी-पीकर 
जी भर गया छका 
एक बूँद थी, किंतु, 
कि जिसकी तृष्णा नहीं मरी। 
कितनी बार तुम्हें देखा 
पर आँखें नहीं भरीं।  

शब्द, रूप, रस, गंध तुम्हारी 
कण-कण में बिखरी 
मिलन साँझ की लाज सुनहरी 
ऊषा बन निखरी, 
हाय, गूँथने के ही क्रम में 
कलिका खिली, झरी 
भर-भर हारी, किंतु रह गई 
रीती ही गगरी। 
कितनी बार तुम्हें देखा 
पर आँखें नहीं भरीं।
 - शिवमंगल सिंह 'सुमन'

मंगलवार, 28 मई 2019

भारत महिमा - जयशंकर प्रसाद

हिमालय के आँगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार  
उषा ने हँस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक-हार  

जगे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक  
व्योम-तम पुँज हुआ तब नष्ट, अखिल संसृति हो उठी अशोक  

विमल वाणी ने वीणा ली, कमल कोमल कर में सप्रीत  
सप्तस्वर सप्तसिंधु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम-संगीत  

बचाकर बीज रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत  
अरुण-केतन लेकर निज हाथ, वरुण-पथ पर हम बढ़े अभीत  

सुना है वह दधीचि का त्याग, हमारी जातीयता विकास  
पुरंदर ने पवि से है लिखा, अस्थि-युग का मेरा इतिहास  

सिंधु-सा विस्तृत और अथाह, एक निर्वासित का उत्साह  
दे रही अभी दिखाई भग्न, मग्न रत्नाकर में वह राह  

धर्म का ले लेकर जो नाम, हुआ करती बलि कर दी बंद  
हमीं ने दिया शांति-संदेश, सुखी होते देकर आनंद  

विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम  
भिक्षु होकर रहते सम्राट, दया दिखलाते घर-घर घूम  

यवन को दिया दया का दान, चीन को मिली धर्म की दृष्टि  
मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि  

किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं  
हमारी जन्मभूमि थी यहीं, कहीं से हम आए थे नहीं  

जातियों का उत्थान-पतन, आँधियाँ, झड़ी, प्रचंड समीर  
खड़े देखा, झेला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर  

चरित थे पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा संपन्न  
हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न  

हमारे संचय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव  
वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा मे रहती थी टेव  

वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान  
वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-संतान  

जियें तो सदा इसी के लिए, यही अभिमान रहे यह हर्ष  
निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष
-- जयशंकर प्रसाद

सोमवार, 27 मई 2019

साध -- सुभद्राकुमारी चौहान

मृदुल कल्पना के चल पँखों पर हम तुम दोनों आसीन।  
भूल जगत के कोलाहल को रच लें अपनी सृष्टि नवीन।।   

वितत विजन के शांत प्रांत में कल्लोलिनी नदी के तीर।  
बनी हुई हो वहीं कहीं पर हम दोनों की पर्ण-कुटीर।।   

कुछ रूखा, सूखा खाकर ही पीतें हों सरिता  का जल।  
पर न कुटिल आक्षेप जगत के करने आवें हमें विकल।।   

सरल काव्य-सा सुंदर जीवन हम सानंद बिताते हों।  
तरु-दल की शीतल छाया में चल समीर-सा गाते हों।।   

सरिता के नीरव प्रवाह-सा बढ़ता हो अपना जीवन।  
हो उसकी प्रत्येक लहर में अपना एक निरालापन।।   

रचे रुचिर रचनाएँ जग में अमर प्राण भरने वाली।  
दिशि-दिशि को अपनी लाली से अनुरंजित करने वाली।।   

तुम कविता के प्राण बनो मैं उन प्राणों की आकुल तान।  
निर्जन वन को मुखरित कर दे प्रिय! अपना सम्मोहन गान।।
-- सुभद्राकुमारी चौहान

शुक्रवार, 24 मई 2019

सावन आया - अमीर खुसरो

अम्मा मेरे बाबा को भेजो री - कि सावन आया
बेटी तेरा बाबा तो बूढ़ा री - कि सावन आया
अम्मा मेरे भाई को भेजो री - कि सावन आया
बेटी तेरा भाई तो बाला री - कि सावन आया
अम्मा मेरे मामू को भेजो री - कि सावन आया
बेटी तेरा मामू तो बांका री - कि सावन आया
 - अमीर खुसरो

गुरुवार, 23 मई 2019

दे दिया मैंने - रवीन्द्र भ्रमर

आज का यह दिन
तुम्हें दे दिया मैंने

आज दिन भर तुम्हारे ही ख़यालों में लगा मेला,
मन किसी मासूम बच्चे-सा फिरा भटका अकेला,
आज भी तुम पर
भरोसा किया मैंने ।

आज मेरी पोथियों में शब्द बनकर तुम्हीं दीखे,
चेतना में उग रहे हैं अर्थ कितने मधुर-तीखे,
जिया मैंने ।

आज सारे दिन बिना मौसम घनी बदली रही है,
सहन आँगन में उमस की, प्यास की धारा बही है,
सुबह उठकर नाम जो
ले लिया मैंने ।
 - रवीन्द्र भ्रमर

बुधवार, 22 मई 2019

प्यासी आँखें - अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध

कहें क्या बातें आँखों की ।
चाल चलती हैं मनमानी ।
सदा पानी में डूबी रह ।
नहीं रख सकती हैं पानी ।।१।।

लगन है रोग या जलन है ।
किसी को कब यह बतलाया ।
जल भरा रहता है उनमें ।
पर उन्हें प्यासी ही पाया ।।२।।
     - अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'

मंगलवार, 21 मई 2019

दिलबारो - गुलज़ार

बे चसे खानमोज कूर
डियै मे रुखसत म्याने भाई-जान’ओ

(बे चसे खानमोज कूर
डियै मे रुखसत म्याने भाई-जान’ओ)
बे चसे खानमोज कूर….

उंगली पकड़ के तूने
चलना सिखाया था ना
दहलीज़ ऊँची है ये, पार करा दे

बाबा मैं तेरी मल्लिका
टुकड़ा हूँ तेरे दिल का
एक बार फिर से दहलीज़ पार करा दे

मुड़के ना देखो दिलबारो
दिलबारो…
मुड़के ना देखो दिलबारो (x2)

फसलें जो काटी जायें
उगती नही हैं
बेटियाँ जो ब्याही जाए
मुड़ती नही हैं… (x2)

ऐसी बिदाई हो तो
लंबी जुदाई हो तो
दहलीज़ दर्द की भी पार करा दे

बाबा मैं तेरी मल्लिका
टुकड़ा हूँ तेरे दिल का
एक बार फिर से दहलीज़ पार करा दे

मुड़के ना देखो दिलबारो
दिलबारो…
मुड़के ना देखो दिलबारो (x2)

मेरे दिलबारो…
बर्फें गालेंगी फिर से

मेरे दिलबारो…
फसलें पकेंगी फिर से

तेरे पाँव के तले
मेरी दुआ चलें
दुआ मेरी चलें…

उंगली पकड़ के तूने
चलना सिखाया था ना
दहलीज़ ऊची है ये, पार करा दे

बाबा मैं तेरी मल्लिका
टुकड़ा हूँ तेरे दिल का
एक बार फिर से दहलीज़ पार करा दे

मुड़के ना देखो दिलबारो
दिलबारो…
मुड़के ना देखो दिलबारो (x2)

[कश्मीरी वोकल्स]

बे चसे खानमोज कूर
डियै मे रुखसत म्याने भाई-जान’ओ
बे चसे खानमोज कूर

मुड़के ना देखो दिलबारो
दिलबारो…
मुड़के ना देखो दिलबारो

- गुलज़ार

रविवार, 19 मई 2019

मैं कल रात नहीं रोया था - हरिवंशराय बच्चन

मैं कल रात नहीं रोया था

दुख सब जीवन के विस्मृत कर,
तेरे वक्षस्थल पर सिर धर,
तेरी गोदी में चिड़िया के बच्चे-सा छिपकर सोया था!
मैं कल रात नहीं रोया था!

प्यार-भरे उपवन में घूमा,
फल खाए, फूलों को चूमा,
कल दुर्दिन का भार न अपने पंखो पर मैंने ढोया था!
मैं कल रात नहीं रोया था!

आँसू के दाने बरसाकर
किन आँखो ने तेरे उर पर
ऐसे सपनों के मधुवन का मधुमय बीज, बता, बोया था?
मैं कल रात नहीं रोया था!
- हरिवंशराय बच्चन

शनिवार, 18 मई 2019

ग़र चंद तवारीखी तहरीर बदल दोगे - अदम गोंडवी

गर चंद तवारीखी तहरीर बदल दोगे
 क्या इनसे किसी कौम की तक़दीर बदल दोगे

 जायस से वो हिन्दी की दरिया जो बह के आई
 मोड़ोगे उसकी धारा या नीर बदल दोगे ?

 जो अक्स उभरता है रसख़ान की नज्मों में
 क्या कृष्ण की वो मोहक तस्वीर बदल दोगे ?

 तारीख़ बताती है तुम भी तो लुटेरे हो
 क्या द्रविड़ों से छीनी जागीर बदल दोगे ? 
- अदम गोंडवी


मंगलवार, 14 मई 2019

क्या इनका कोई अर्थ नहीं - धर्मवीर भारती

ये शामें, सब की शामें... 
जिनमें मैंने घबरा कर तुमको याद किया 
जिनमें प्यासी सीपी-सा भटका विकल हिया 
जाने किस आने वाले की प्रत्याशा में 
ये शामें 
क्या इनका कोई अर्थ नहीं? 
वे लमहें 
वे सूनेपन के लमहें 
जब मैनें अपनी परछाई से बातें की 
दुख से वे सारी वीणाएं फेकीं 
जिनमें अब कोई भी स्वर न रहे 
वे लमहें 
क्या इनका कोई अर्थ नहीं?
वे घड़ियां, वे बेहद भारी-भारी घड़ियां
जब मुझको फिर एहसास हुआ
अर्पित होने के अतिरिक्त कोई राह नहीं   
जब मैंने झुककर फिर माथे से पंथ छुआ
फिर बीनी गत-पाग-नूपुर की मणियां
वे घड़ियां 
क्या इनका कोई अर्थ नहीं?
ये घड़ियां, ये शामें, ये लमहें 
जो मन पर कोहरे से जमे रहे 
निर्मित होने के क्रम में 
क्या इनका कोई अर्थ नहीं?
जाने क्यों कोई मुझसे कहता 
मन में कुछ ऐसा भी रहता 
जिसको छू लेने वाली हर पीड़ा 
जीवन में फिर जाती व्यर्थ नहीं
अर्पित है पूजा के फूलों-सा जिसका मन 
अनजाने दुख कर जाता उसका परिमार्जन 
अपने से बाहर की व्यापक सच्चाई को 
नत-मस्तक होकर वह कर लेता सहज ग्रहण 
वे सब बन जाते पूजा गीतों की कड़ियां 
यह पीड़ा, यह कुण्ठा, ये शामें, ये घड़ियां 
इनमें से क्या है 
जिनका कोई अर्थ नहीं!
कुछ भी तो व्यर्थ नहीं!
 - धर्मवीर भारती

चित्र - रवीन्द्र भारद्वाज

रविवार, 12 मई 2019

आँसुओं की जहाँ पायमाली रही ~ बशीर बद्र

आँसुओं की जहाँ पायमाली रही
ऐसी बस्ती चराग़ों से ख़ाली रही

दुश्मनों की तरह उस से लड़ते रहे
अपनी चाहत भी कितनी निराली रही

जब कभी भी तुम्हारा ख़याल आ गया
फिर कई रोज़ तक बेख़याली रही

लब तरसते रहे इक हँसी के लिये
मेरी कश्ती मुसाफ़िर से ख़ाली रही

चाँद तारे सभी हम-सफ़र थे मगर
ज़िन्दगी रात थी रात काली रही

मेरे सीने पे ख़ुशबू ने सर रख दिया
मेरी बाँहों में फूलों की डाली रही
~ बशीर बद्र

शुक्रवार, 10 मई 2019

मैं तो झोंका हूँ ~ कुमार विश्वास

मैं तो झोंका हूँ हवाओं का उड़ा ले जाऊँगा
जागती रहना, तुझे तुझसे चुरा ले जाऊँगा

हो के क़दमों पर निछावर फूल ने बुत से कहा
ख़ाक में मिल कर भी मैं ख़ुश्बू बचा ले जाऊँगा

कौन-सी शै तुझको पहुँचाएगी तेरे शहर तक
ये पता तो तब चलेगा जब पता ले जाऊँगा

क़ोशिशें मुझको मिटाने की मुबारक़ हों मगर
मिटते-मिटते भी मैं मिटने का मज़ा ले जाऊँगा

शोहरतें जिनकी वजह से दोस्त-दुश्मन हो गए
सब यहीं रह जाएंगी मैं साथ क्या ले जाऊँगा
 ~ कुमार विश्वास

गुरुवार, 9 मई 2019

कही सुनी पे बहुत एतबार करने लगे - वसीम बरेलवी

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कही-सुनी पे बहुत एतबार करने लगे
मेरे ही लोग मुझे संगसार करने लगे

पुराने लोगों के दिल भी हैं ख़ुशबुओं की तरह
ज़रा किसी से मिले, एतबार करने लगे

नए ज़माने से आँखें नहीं मिला पाये
तो लोग गुज़रे ज़माने से प्यार करने लगे

कोई इशारा, दिलासा न कोई वादा मगर
जब आई शाम तेरा इंतज़ार करने लगे

हमारी सादा -मिजाज़ी की दाद दे कि तुझे
बग़ैर परखे तेरा एतबार करने लगे.

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- वसीम बरेलवी

बुधवार, 8 मई 2019

पीछे - गोपालदास "नीरज"

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गुमनामियों मे रहना, नहीं है कबूल मुझको
चलना नहीं गवारा, बस साया बनके पीछे..

वो दिल मे ही छिपा है, सब जानते हैं लेकिन
क्यूं भागते फ़िरते हैं, दायरो-हरम के पीछे..

अब “दोस्त” मैं कहूं या, उनको कहूं मैं “दुश्मन”
जो मुस्कुरा रहे हैं,खंजर छुपा के अपने पीछे..

तुम चांद बनके जानम, इतराओ चाहे जितना
पर उसको याद रखना, रोशन हो जिसके पीछे..

वो बदगुमा है खुद को, समझे खुशी का कारण
कि मैं चह-चहा रहा हूं, अपने खुदा के पीछे..

इस ज़िन्दगी का मकसद, तब होगा पूरा “नीरज”
जब लोग याद करके, मुस्कायेंगे तेरे पीछे..

मंगलवार, 7 मई 2019

प्रार्थना बनी रही - गोपाल सिंह नेपाली

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रोटियाँ ग़रीब की प्रार्थना बनी रही 
एक ही तो प्रश्न है रोटियों की पीर का 
पर उसे भी आसरा आँसुओं के नीर का 
राज है ग़रीब का ताज दानवीर का 
तख़्त भी पलट गया कामना गई नहीं 
रोटियाँ ग़रीब की प्रार्थना बनी रही 
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चूम कर जिन्हें सदा क्राँतियाँ गुज़र गईं 
गोद में लिये जिन्हें आँधियाँ बिखर गईं 
पूछता ग़रीब वह रोटियाँ किधर गई 
देश भी तो बँट गया वेदना बँटी नहीं 
रोटियाँ ग़रीब की प्रार्थना बनी रही
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रविवार, 5 मई 2019

भूल जाओ वामन - नीलम सिंह

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नहीं काट सकते 
अतल में धँसी 
मेरी जड़ों को 
तुम्हारी नैतिकता के 
जंग लगे भोथरे हथियार
 
मत आँको मेरा मूल्य 
धरती आकाश से 
आकाश धरती से सार्थक है
 
तुम्हारे पाँव हर बार की तरह 
आदर्श का लम्बा रास्ता भूलकर 
मेरे अस्तित्व की छोटी पगडण्डी 
पर ही लौट आएँगे
 
अपना विस्तार,भूल जाओ वामन 
मेरी अस्मिता नापने में 
तुम्हारे तीन पग छोटे पड़ जाएँगे ।
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शनिवार, 4 मई 2019

विदाभास - रामदरश मिश्र

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फिर हवा बहने लगी कहने लगीं वनराइयाँ
काँपने फिर-फिर लगीं ठहरी हुई परछाइयाँ।

थरथराने से लगे कुछ पंख अपने नीड़ में
एक छाया छू मुझे उड़, खो गई किसी भीड़ में
ताल फिर हिलने लगा, फटने लगी फिर काइयाँ।

एक भटकी नाव धारा पर निरखती दीठियाँ
प्रान्तरों को चीरतीं फिर इंजनों की सीटियाँ
अब कहाँ ले जाएंगी यायावरी तनहाइयाँ।

भीत पर अंकित दिनों के नाम फिर हिलने लगे
डायरी के पृष्ठ कोरे फड़फड़ा खुलने लगे
उभरने दृग में लगीं पथ की नमी गहराइयाँ।
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गुरुवार, 2 मई 2019

मैंने पूछा - भवानीप्रसाद मिश्र

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मैंने पूछा
तुम क्यों आ गई
वह हँसी

और बोली
तुम्हें कुरूप से
 बचाने के लिए 

कुरूप है
ज़रुरत से ज़्यादा
धूप

मैं छाया हूँ
ज़रूरत से ज़्यादा धूप 
कुरूप है ना?
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बुधवार, 1 मई 2019

नवगीत - 4 - श्रीकृष्ण तिवारी

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कुछ के रुख दक्षिण 
कुछ वाम 
सूरज के घोड़े हो गए 
बेलगाम 

थोड़ी- सी तेज हुई हवा 
और हिल गई सड़क 
लुढ़क गया शहर एक ओर 
ख़ामोशी उतर गई केंचुल -सी 
माथे के उपर बहने लगा 
तेज धार पानी सा शोर 
अफ़वाहों के हाथों 
चेक की तरह भूनने लग गई 
आवारा सुबह और शाम 

पत्थर को चीरती हुई सभी 
आवाज़ें कहीं गईं मर 
गरमाहट सिर्फ राख की 
जिन्दा है इस मौसम भर 
ताश -महल फिर बनने लग गया 
चुस्त लगे होने फिर 
हुकुम के गुलाम |