मंगलवार, 30 अप्रैल 2019

कितनी सदियों से ढूँढ़ती होंगी - गुलज़ार

Image result for कितनी सदियों से ढूँढ़ती होंगी
कितनी सदियों से ढूँढ़ती होंगी
तुमको ये चाँदनी की आवज़ें

पूर्णमासी की रात जंगल में
नीले शीशम के पेड़ के नीचे 
बैठकर तुम कभी सुनो जानम
भीगी-भीगी उदास आवाज़ें
नाम लेकर पुकारती है तुम्हें
पूर्णमासी की रात जंगल में...

पूर्णमासी की रात जंगल में
चाँद जब झील में उतरता है
गुनगुनाती हुई हवा जानम
पत्ते-पत्ते के कान में जाकर
नाम ले ले के पूछती है तुम्हें

पूर्णमासी की रात जंगल में
तुमको ये चाँदनी आवाज़ें 
कितनी सदियों से ढूँढ़ती होंगी


सोमवार, 29 अप्रैल 2019

सुरों के सहारे - सर्वेश्वरदयाल सक्सेना

Image result for सोयी पड़ी थीं पहाड़ियाँ
दूर दूर तक 
सोयी पड़ी थीं पहाड़ियाँ 
अचानक टीले करवट बदलने लगे 
जैसे नींद में उठ चलने लगे।
एक अदृश्य विराट हाथ बादलों-सा बढ़ा 
पत्थरों को निचोड़ने लगा
निर्झर फूट पड़े 
फिर घूम कर सबकुछ रेगिस्तान में बदल गया

शांत धरती से 
अचानक आकाश चूमते 
धूल भरे बवंडर उठे 
फिर रंगीन किरणों में बदल 
धरती पर बरस कर शांत हो गए।

तभी किसी
बांस के वन में आग लग गई
पीली लपटें उठने लगीं 
फिर धीरे-धीरे हरी होकर
पत्तियों से लिपट गईं।
पूरा वन असंख्य बाँसुरियों में बज उठा
पत्तियाँ नाच-नाच कर 
पेड़ों से अलग हो 
हरे तोते बन उड़ गईं।

लेकिन भीतर कहीं बहुत गहरे 
शाखों में फँसा
बेचैन छटपटाता रहा 
एक बारहसिंहा

सारा जंगल काँपता हिलता रहा
लो वह मुक्त हो 
चौकड़ी भरता 
शून्य में विलीन हो गया 
जो धमनियों से 
अनंत तक फैला हुआ है।
Image result for सुरों के सहारे / सर्वेश्वरदयाल सक्सेना
- सर्वेश्वरदयाल सक्सेना


रविवार, 28 अप्रैल 2019

उसने कहा था - दिविक रमेश

Image result for उसने कहा था
मेरे निकट आओ, मेरी महक से महको
और सूँघो
यह किसी फूल या खुशबू ने नहीं
उसने कहा था।


मेरे निकट आओ, मेरा ताप तापो
और सेंको
यह किसी अग्नि या सूर्य ने नहीं
उसने कहा था।


मेरे निकट आओ, मेरी ठंड से शीतल हो जाओ
और ठंडाओ
यह किसी जल या पर्वती हवा ने नहीं
उसने कहा था।


वह कोई रहस्य भी नहीं था
एक मिलना भर था
कुछ ईमानदार क्षणों में खुद से
जो था असल में
रहस्य ही।


वह जो बहुत उजागर है
गठरियों में बाँध उसे
कितना रहस्य बनाए रखते हैं हम।


शायद सोचना चाहिए मुझे
कि उसे
कहना क्यों पड़ा?
Image result for उसने कहा था / दिविक रमेश
- दिविक रमेश


शनिवार, 27 अप्रैल 2019

एक पैगाम आकाश के नाम - नीलम सिंह

Image result for आकाश
आकाश ! 
कब तक ओढ़ोगे 
परंपरा की पुरानी चादर, 
ढोते रहोगे 
व्यापक होने का झूठा दंभ,
 
तुम्हारा उद्देश्यहीन विस्तार 
नहीं ढक सका है 
किसी का नंगापन 

छोड़कर कल्पना, 
वास्तविकता पर उतर आओ, 
भाई ! अपने नीले फलक पर 
इन्द्रधनुष नहीं 
रोटियाँ उगाओ।
Image result for एक पैगाम आकाश के नाम / नीलम सिंह
- नीलम सिंह


गुरुवार, 25 अप्रैल 2019

कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये - दुष्यंत कुमार

Image result for कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये / दुष्यंत कुमार
कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये
कहाँ चराग़ मयस्सर नहीं शहर के लिये

यहाँ दरख़्तों के साये में धूप लगती है
चलो यहाँ से चले और उम्र भर के लिये

न हो क़मीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे
ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफ़र के लिये

ख़ुदा नहीं न सही आदमी का ख़्वाब सही
कोई हसीन नज़ारा तो है नज़र के लिये

वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता
मैं बेक़रार हूँ आवाज़ में असर के लिये

जियें तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले
मरें तो ग़ैर की गलियों में गुलमोहर के लिये.
Image result for कहाँ तो तय था चराग़ाँ हर एक घर के लिये / दुष्यंत कुमार
- दुष्यंत कुमार


बुधवार, 24 अप्रैल 2019

लक्ष्यहीन कहाँ चले - शिवबहादुर सिंह भदौरिया

Image result for लक्ष्यहीन कहाँ चले
दिशाहीन गगन-तले
लक्ष्यहीन कहाँ चले-
चलते रथ-चक्रों को मोड़ो हे सारथी।

चाहे जिन दामों की मँहगी यह ऊँचाई,
तिल भर ठहराव नहीं, पग-पग फिसलन, काई;
उतरो मैदानों में,
खेतों-खलिहानों में,
आकाशी स्वप्न-भूमि छोड़ो परमार्थी।

यह जो है अन्ध-गुफा अपनी ही रची हुई,
देखो कुछ ज्योति अभी इसमकें ही बची हुई;
मानो, कहना मानो,
किरण-बाण सन्धानों,
तम का दुर्भेद्य दुर्ग तोड़ो पुरुषार्थी।

तन कर दृढ़ तरुवर से, आँधियाँ लपेटो रे!
पथ के व्यवधानों को, वस्त्र-सा समेटो रे;
क्रुद्ध वीर्य गाने दो
भैरवी जगाने दो
वीणा-तज, ले त्रिशूल दौड़ो हे भारती।
Image result for लक्ष्यहीन कहाँ चले / शिवबहादुर सिंह भदौरिया
- शिवबहादुर सिंह भदौरिया


मंगलवार, 23 अप्रैल 2019

तुम वहाँ भी होगी - चन्द्रकान्त देवताले

Related image
अगर मुझे औरतों के बारे में
कुछ पूछना हो तो मैं तुम्हें ही चुनूंगा
तहकीकात के लिए

यदि मुझे औरतों के बारे में
कुछ कहना हो तो मैं तुम्हें ही पाऊँगा अपने भीतर
जिसे कहता रहूँगा बाहर शब्दों में
जो अपर्याप्त साबित होंगे हमेशा

यदि मुझे किसी औरत का कत्ल करने की
सजा दी जाएगी तो तुम ही होगी यह सजा देने वाली
और मैं खुद की गरदन काट कर रख दूँगा तुम्हारे सामने

और यह भी मुमकिन है
कि मुझे खन्दक या खाई में कूदने को कहा जाए
मरने के लिए
तब तुम ही होंगी जिसमें कूद कर
निकल जाऊँगा सुरक्षित दूसरी दुनिया में

और तुम वहाँ भी होंगी विहँसते हुए
मुझे क्षमा करने के लिए
Image result for तुम वहाँ भी होगी / चन्द्रकान्त देवताले
- चन्द्रकान्त देवताले


सोमवार, 22 अप्रैल 2019

किताबें झाँकती हैं - गुलज़ार

Image result for किताबें झाँकती हैं / गुलज़ार
किताबें झाँकती है बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती है
महीनों अब मुलाक़ातें नही होती
जो शामें उनकी सोहबत में कटा करती थी 
अब अक्सर गुज़र जाती है कम्प्यूटर के परदे पर 
बड़ी बैचेन रहती है किताबें 
उन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है

जो ग़ज़लें वो सुनाती थी कि जिनके शल कभी गिरते नही थे
जो रिश्तें वो सुनाती थी वो सारे उधड़े-उधड़े है
कोई सफ़्हा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ़्ज़ों के मानी गिर पड़े है
बिना पत्तों के सूखे टूँड लगते है वो सब अल्फ़ाज़
जिन पर अब कोई मानी उगते नही है

जबाँ पर ज़ायका आता था सफ़्हे पलटने का 
अब उँगली क्लिक करने से बस एक झपकी गुज़रती है
बहोत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर
क़िताबों से जो ज़ाती राब्ता था वो कट-सा गया है

कभी सीनें पर रखकर लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे
कभी घुटनों को अपने रहल की सूरत बनाकर 
नीम सज़दे में पढ़ा करते थे 
छूते थे जंबीं से 

वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइन्दा भी
मगर वो जो उन क़िताबों में मिला करते थे
सूखे फूल और महके हुए रूक्के
क़िताबें माँगने, गिरने, उठाने के बहाने जो रिश्ते बनते थे
अब उनका क्या होगा...!!
Image result for किताबें झाँकती हैं / गुलज़ार
- गुलज़ार


रविवार, 21 अप्रैल 2019

स्नेह-निर्झर बह गया है - सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

Related image
स्नेह-निर्झर बह गया है !
रेत ज्यों तन रह गया है ।

आम की यह डाल जो सूखी दिखी,
कह रही है-"अब यहाँ पिक या शिखी
नहीं आते; पंक्ति मैं वह हूँ लिखी
नहीं जिसका अर्थ-
          जीवन दह गया है ।"

"दिये हैं मैने जगत को फूल-फल,
किया है अपनी प्रतिभा से चकित-चल;
पर अनश्वर था सकल पल्लवित पल--
ठाट जीवन का वही
          जो ढह गया है ।"

अब नहीं आती पुलिन पर प्रियतमा,
श्याम तृण पर बैठने को निरुपमा ।
बह रही है हृदय पर केवल अमा;
मै अलक्षित हूँ; यही
          कवि कह गया है ।
Image result for स्नेह-निर्झर बह गया है / सूर्यकांत त्रिपाठी "निराला"

शनिवार, 20 अप्रैल 2019

बताता जा रे अभिमानी! - महादेवी वर्मा

Image result for बताता जा रे अभिमानी! / महादेवी वर्मा
बताता जा रे अभिमानी!

कण-कण उर्वर करते लोचन
स्पन्दन भर देता सूनापन
जग का धन मेरा दुख निर्धन
तेरे वैभव की भिक्षुक या
कहलाऊँ रानी!
बताता जा रे अभिमानी!

दीपक-सा जलता अन्तस्तल
संचित कर आँसू के बादल
लिपटी है इससे प्रलयानिल,
क्या यह दीप जलेगा तुझसे
भर हिम का पानी?
बताता जा रे अभिमानी!

चाहा था तुझमें मिटना भर
दे डाला बनना मिट-मिटकर
यह अभिशाप दिया है या वर;
पहली मिलन कथा हूँ या मैं
चिर-विरह कहानी!
बताता जा रे अभिमानी!
Image result for बताता जा रे अभिमानी! / महादेवी वर्मा
- महादेवी वर्मा