गुरुवार, 28 फ़रवरी 2019

यादों के मानसरोवर - राकेश खंडेलवाल

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संझवाती के दीपक की लौ के लहराते सायों में जब
धुंधले धुंधले आकारों के कुछ चिन्ह नज़र आ जाते हैं
यादों के मानसरोवर की लहरों से उड़कर राजहंस
उस घड़ी शाम के ढलते ही अंगनाई में आ जाते हैं

बीते कल के चित्रों में कुछ बदलाव न कर पाती कूची
आंखों में आ लहराती है फिर एक अधूरी वह सूची
जिसमें चिह्नित पल जब हमने आशा के बिरवे बोए थे
जिनके अंकुर, बरसों बीते, प्रस्फ़ुटित नहीं हो पाते हैं

यादों के मानसरोवर की लहरों से उड़ कर राजहंस
उस घड़ी शाम के ढलते ही अंगनाई में आ जाते हैं

नज़रों की खोज भटकती है मावस की सूनी रातों में
सुधियों के पत्र बिखरते हैं, सांसों के झंझावातों में
पाटल पर बनते सपनों के रंग गडमड हो कर रह जाते
जब मन की सोई झीलों में कुछ कंकर फेंके जाते हैं

यादों के मानसरोवर की लहरों से उड़कर राजहंस
उस घड़ी शाम के ढलते ही अंगनाई में आ जाते हैं

अजनबियत जब बंध जाती है, परिचय के कोमल धागों से
जैसे सरगम का जु़ड़ता है नाता आवारा रागों से
उस परिचय के पथ में कोई जब ऐसा मोड़ मिला करता
जब शब्द अधर को छूने से पहले ही फिसले जाते हैं

यादों के मानसरोवर की लहरों से उड़कर राजहंस
उस घड़ी शाम के ढलते ही अंगनाई में आ जाते हैं

इतिहासों के घटनाक्रम जब, सहसा ही हो जाते जीवित
विस्तारित अंबर की सीमा, मुट्ठी में हो जाती सीमित
चेहरे पर आंसू की रेखा बन कर पगडंडी रह जाती
धूमिल से चिह्न धुएं से जब कुछ और अधिक हो जाते हैं

यादों के मानसरोवर की लहरों से उड़कर राजहंस
उस घड़ी सांझ के ढलते ही अंगनाई में आ जाते हैं
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- राकेश खंडेलवाल


बुधवार, 27 फ़रवरी 2019

उदास तुम - धर्मवीर भारती

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तुम कितनी सुन्दर लगती हो
जब तुम हो जाती हो उदास !
ज्यों किसी गुलाबी दुनिया में सूने खँडहर के आसपास
मदभरी चांदनी जगती हो !

मुँह पर ढँक लेती हो आँचल
ज्यों डूब रहे रवि पर बादल,
या दिन-भर उड़कर थकी किरन,
सो जाती हो पाँखें समेट, आँचल में अलस उदासी बन !
दो भूले-भटके सान्ध्य-विहग, पुतली में कर लेते निवास !
तुम कितनी सुन्दर लगती हो
जब तुम हो जाती हो उदास !

खारे आँसू से धुले गाल
रूखे हलके अधखुले बाल,
बालों में अजब सुनहरापन,
झरती ज्यों रेशम की किरनें, संझा की बदरी से छन-छन !
मिसरी के होठों पर सूखी किन अरमानों की विकल प्यास !
तुम कितनी सुन्दर लगती हो
जब तुम हो जाती हो उदास !

भँवरों की पाँतें उतर-उतर
कानों में झुककर गुनगुनकर
हैं पूछ रहीं-‘क्या बात सखी ?
उन्मन पलकों की कोरों में क्यों दबी ढँकी बरसात सखी ?
चम्पई वक्ष को छूकर क्यों उड़ जाती केसर की उसाँस ?
तुम कितनी सुन्दर लगती हो
ज्यों किसी गुलाबी दुनिया में सूने खँडहर के आसपास
मदभरी चाँदनी जगती हो !
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- धर्मवीर भारती


मंगलवार, 26 फ़रवरी 2019

तुम निश्चिन्त रहना - किशन सरोज

कर दिए लो आज गंगा में प्रवाहित
सब तुम्हारे पत्र, सारे चित्र, तुम निश्चिन्त रहना

धुंध डूबी घाटियों के इंद्रधनु तुम
छू गए नत भाल पर्वत हो गया मन
बूंद भर जल बन गया पूरा समंदर
पा तुम्हारा दुख तथागत हो गया मन
अश्रु जन्मा गीत कमलों से सुवासित
यह नदी होगी नहीं अपवित्र, तुम निश्चिन्त रहना

दूर हूँ तुमसे न अब बातें उठें
मैं स्वयं रंगीन दर्पण तोड़ आया
वह नगर, वे राजपथ, वे चौंक-गलियाँ
हाथ अंतिम बार सबको जोड़ आया
थे हमारे प्यार से जो-जो सुपरिचित
छोड़ आया वे पुराने मित्र, तुम निश्चिंत रहना

लो विसर्जन आज वासंती छुअन का
साथ बीने सीप-शंखों का विसर्जन
गुँथ न पाए कनुप्रिया के कुंतलों में
उन अभागे मोर पंखों का विसर्जन
उस कथा का जो न हो पाई प्रकाशित
मर चुका है एक-एक चरित्र, तुम निश्चिंत रहना
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- किशन सरोज

चित्र - रवीन्द्र भारद्वाज


सोमवार, 25 फ़रवरी 2019

नादान प्रेमिका से - शैलेन्द्र

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तुमको अपनी नादानी पर
जीवन भर पछताना होगा!

मैं तो मन को समझा लूंगा

यह सोच कि पूजा था पत्थर--
पर तुम अपने रूठे मन को
बोलो तो, क्या उत्तर दोगी ?
नत शिर चुप रह जाना होगा!
जीवन भर पछताना होगा!

मुझको जीवन के शत संघर्षों में

रत रह कर लड़ना है ;
तुमको भविष्य की क्या चिन्ता,
केवल अतीत ही पढ़ना है!
बीता दुख दोहराना होगा!
जीवन भर पछताना होगा!
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- शैलेन्द्र


शनिवार, 23 फ़रवरी 2019

एक बार जो - अशोक वाजपेयी

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एक बार जो ढल जाएंगे
शायद ही फिर खिल पाएंगे।

फूल शब्द या प्रेम
पंख स्वप्न या याद
जीवन से जब छूट गए तो
फिर न वापस आएंगे।
अभी बचाने या सहेजने का अवसर है
अभी बैठकर साथ
गीत गाने का क्षण है।

अभी मृत्यु से दांव लगाकर
समय जीत जाने का क्षण है।
कुम्हलाने के बाद
झुलसकर ढह जाने के बाद
फिर बैठ पछताएंगे।

एक बार जो ढल जाएंगे
शायद ही फिर खिल पाएंगे।
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- अशोक वाजपेयी


शुक्रवार, 22 फ़रवरी 2019

सब जीवन बीता जाता है - जयशंकर प्रसाद

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सब जीवन बीता जाता है
धूप छाँह के खेल सदॄश
सब जीवन बीता जाता है

समय भागता है प्रतिक्षण में,
नव-अतीत के तुषार-कण में,
हमें लगा कर भविष्य-रण में,
आप कहाँ छिप जाता है
सब जीवन बीता जाता है

बुल्ले, नहर, हवा के झोंके,
मेघ और बिजली के टोंके,
किसका साहस है कुछ रोके,
जीवन का वह नाता है
सब जीवन बीता जाता है

वंशी को बस बज जाने दो,
मीठी मीड़ों को आने दो,
आँख बंद करके गाने दो
जो कुछ हमको आता है

सब जीवन बीता जाता है.
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- जयशंकर प्रसाद


गुरुवार, 21 फ़रवरी 2019

तुम हर बार आती हो एकांत में - ध्रुव शुक्ल

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तुम हर बार आती हो एकांत में
जैसे पानी में उठती है तरंग
जैसे घोंसले में लौटती है चिड़िया
तुम नदी की धार होकर मुझे गुदगुदाती हो
मैं चित्र होकर डोलने लगता हूँ
अपने ही हृदय में तुम्हारे साथ
बहुत गहरे महसूस करता हूँ तुम्हारी धारा
पेड़ की तरह जड़ों में
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- ध्रुव शुक्ल


बुधवार, 20 फ़रवरी 2019

मैं कहीं नहीं - जेन्नी शबनम

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हर बार की तरह
निष्ठुर बन 
फिर चले गए तुम
मुझे मेरे प्रश्नों में जलने के लिए छोड़ गए 
वो प्रश्न 
जिसके उत्तर तलाशती हुई मैं
एक बार जैसे नदी बन गई थी 
और बिरहा के आँसू 
बरखा की बूंदों में लपेट-लपेट कर 
नदी में प्रवाहित कर रही थी
और खुद से पूछती रही 
क्या सिर्फ मैं दोषी हूँ?

क्या उस दिन मैंने कहा था कि चलो
चलकर चखें उस झील के पानी को
जिसमें सुना है 
कभी किसी राजा ने 
अपनी प्रेमिका के संग 
ठिठुरते ठण्ड में स्नान किया था 
ताकि काया कंचन सी हो जाए
और अनन्त काल तक वे चिर युवा रहें 

वो पहला इशारा भी तुमने ही किया 
कि चलो चांदनी को मुट्ठी में भर लें
क्या मालूम मुफलिसी के अंधेरों का 
जाने कब जिन्दगी में अँधियारा भर जाए
मुट्ठी खोल एक दूसरे के मुँह पर झोंक देंगे 
होंठ खामोश भी हो 
मगर 
आँखें तो देख सकेंगी एक झलक
और उस दिन भी तो तुम ही थे न
जिसने चुपके से कानों में कहा था
मैं हूँ न, मुझसे बाँट लिया करो अपना दर्द
अपना दर्द भला कैसे बाँटती तुमसे
तुमने कभी खुशी को भी सुनना नहीं चाहा
क्योंकि मालूम था तुम्हें 
मेरे जीवन का अमावस
जानती थी 
तुमने कहने के लिए सिर्फ कहा था 
मैं हूँ न 
मानने के लिए नहीं

एक दिन कहा था तुमने 
वक्त के साथ चलो
मन में बहुत रंजिश है
तुम्हारे लिए भी और वक्त के लिए भी 
फिर भी चल रही हूँ वक्त के साथ 
रोज रोज प्रतीक्षा की मियाद बढाते रहे तुम
मेरे संवाद और सन्देश फ़िज़ूल होते गए 
वक्त के साथ चलने का मेरा वादा 
अब भी कायम है 
करना सवाल खुद से कभी 
कोई वादा कब तोड़ा मैंने?
वक्त से बाहर कब गयी भला?
क्या उस वक्त मैं वक्त के साथ नहीं चली थी?

कितनी लंबी प्रतीक्षा
और फिर जब सुना
मैं हूँ न 
उसके बाद ये सब कैसे
क्या सारी तहजीब भूल गए?
मेरे सँभलने तक रुक तो सकते थे 
या इतना कह कर जाते 
मैं कहीं नहीं
कमसे कम प्रतीक्षा का अंत तो होता 

तुम बेहतर जानते हो 
मेरी जिन्दगी तो तब भी थी तुम्हारे ही साथ
अब भी है तुम्हारे ही साथ
फर्क ये है कि तुम अब भी नहीं जानते मुझे 
और मैं तुम्हें 
कतरा-कतरा जीने में 
सर्वस्व पी चुकी हूँ.
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- जेन्नी शबनम

रविवार, 17 फ़रवरी 2019

तुम हकीकत नहीं हो हसरत हो - जॉन एलिया

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तुम हक़ीक़त नहीं हो हसरत हो
जो मिले ख़्वाब में वो दौलत हो

तुम हो ख़ुशबू के ख़्वाब की ख़ुशबू
और इतने ही बेमुरव्वत हो

तुम हो पहलू में पर क़रार नहीं
यानी ऐसा है जैसे फुरक़त हो 

है मेरी आरज़ू के मेरे सिवा
तुम्हें सब शायरों से वहशत हो

किस तरह छोड़ दूँ तुम्हें जानाँ
तुम मेरी ज़िन्दगी की आदत हो 

किसलिए देखते हो आईना 
तुम तो ख़ुद से भी ख़ूबसूरत हो

दास्ताँ ख़त्म होने वाली है
तुम मेरी आख़िरी मुहब्बत हो
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जो उलझ कर रह गयी है फाइलों के जाल में - अदम गोंडवी

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जो उलझ कर रह गयी है फाइलों के जाल में
गाँव तक वह रौशनी आएगी कितने साल में

बूढ़ा बरगद साक्षी है किस तरह से खो गयी
राम सुधि की झौपड़ी सरपंच की चौपाल में

खेत जो सीलिंग के थे सब चक में शामिल हो गए
हम को पट्टे की सनद मिलती भी है तो ताल में
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-अदम गोंडवी


शनिवार, 16 फ़रवरी 2019

मैं सुमन हूँ - द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

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व्योम के नीचे खुला आवास मेरा;
ग्रीष्म, वर्षा, शीत का अभ्यास मेरा;
झेलता हूँ मार मारूत की निरंतर, 
खेलता यों जिंदगी का खेल हंसकर। 
शूल का दिन रात मेरा साथ किंतु प्रसन्न मन हूँ
मैं सुमन हूँ...

तोड़ने को जिस किसी का हाथ बढ़ता, 
मैं विहंस उसके गले का हार बनता; 
राह पर बिछना कि चढ़ना देवता पर, 
बात हैं मेरे लिए दोनों बराबर। 
मैं लुटाने को हृदय में भरे स्नेहिल सुरभि-कन हूँ
मैं सुमन हूँ...

रूप का श्रृंगार यदि मैंने किया है, 
साथ शव का भी हमेशा ही दिया है; 
खिल उठा हूँ यदि सुनहरे प्रात में मैं, 
मुस्कराया हूँ अंधेरी रात में मैं। 
मानता सौन्दर्य को- जीवन-कला का संतुलन हूँ
मैं सुमन हूँ...
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- द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी


शुक्रवार, 15 फ़रवरी 2019

क़दम उसी मोड़ पर जमे हैं - गुलज़ार

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क़दम उसी मोड़ पर जमे हैं
नज़र समेटे हुए खड़ा हूँ 
जुनूँ ये मजबूर कर रहा है पलट के देखूँ 
ख़ुदी ये कहती है मोड़ मुड़ जा 
अगरचे एहसास कह रहा है 
खुले दरीचे के पीछे दो आँखें झाँकती हैं 
अभी मेरे इंतज़ार में वो भी जागती है 
कहीं तो उस के गोशा-ए-दिल में दर्द होगा 
उसे ये ज़िद है कि मैं पुकारूँ 
मुझे तक़ाज़ा है वो बुला ले 
क़दम उसी मोड़ पर जमे हैं 
नज़र समेटे हुए खड़ा हूँ 
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-गुलज़ार


मंगलवार, 12 फ़रवरी 2019

कविता की ज़रूरत - कुंवर नारायण

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बहुत कुछ दे सकती है कविता 
क्यों कि बहुत कुछ हो सकती है कविता
ज़िन्दगी में 

अगर हम जगह दें उसे 
जैसे फलों को जगह देते हैं पेड़
जैसे तारों को जगह देती है रात 

हम बचाये रख सकते हैं उसके लिए 
अपने अन्दर कहीं 
ऐसा एक कोना 
जहाँ ज़मीन और आसमान 
जहाँ आदमी और भगवान के बीच दूरी 
कम से कम हो ।

वैसे कोई चाहे तो जी सकता है 
एक नितान्त कवितारहित ज़िन्दगी 
कर सकता है 
कवितारहित प्रेम
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- कुंवर नारायण


शनिवार, 9 फ़रवरी 2019

इसी काया में मोक्ष - दिनेश कुशवाह


बहुत दिनों से मैं 
किसी ऐसे आदमी से मिलना चाहता हूं 
जिसे देखते ही लगे
इसी से तो मिलना था।



एक ऐसा आदमी जिसे पाकर 
यह देह रोज़ ही जन्मे, रोज़ ही मरे 
झरे हरसिंगार की तरह 
जिसे पाकर मन 
फूलकर कुप्पा हो जाए।



बहुत दिनों से मैं 
किसी ऐसे आदमी से मिलना चाहता हूँ
जिसे देखते ही लगे
अगर पूरी दुनिया अपनी आँखों नहीं देखी
तो भी यह जन्म व्यर्थ नहीं गया। 



बहुत दिनों से मैं 
किसी को अपना कलेजा
निकालकर दे देना चाहता हूँ
मुद्दतों से मेरे सीने में 
भर गया है अपार मर्म
मैं चाहता हूं कोई 
मेरे पास भूखे शिशु की तरह आए
कोई मथ डाले मेरे भीतर का समुद्र
और निकाल ले सारे रतन।
बहुत दिनों से मैं 
किसी ऐसे आदमी से मिलना चाहता हूँ
जिसे देखते ही 
भक्क से बर जाए आँखों में लौ
और लगे कि दीया लेकर खोजने पर ही
मिलेगा धरती पर ऐसा मनुष्य
कि पा गया मैं उसे
जिसे मेरे पुरखे गंगा नहाकर पाते थे
बहुत दिनों से मैं 
जानना चाहता हूँ 
कैसा होता है मन की सुन्दरता का मानसरोवर
छूना चाहता हूँ तन की सुन्दरता का शिखर
मैं चाहता हूँ मिले कोई ऐसा
जिससे मन हज़ार बहानो से मिलना चाहे। 



बहुत दिनों से मैं 
किसी ऐसे आदमी से मिलना चाहता हूँ
जिसे देखते ही लगे
करोड़ों जन्मों के पाप मिट गए
कट गए सारे बंधन
कि मोक्ष मिल गया इसी काया में। 
- दिनेश कुशवाह

गुरुवार, 7 फ़रवरी 2019

बसन्त आया - रघुवीर सहाय

जैसे बहन 'दा' कहती है
ऐसे किसी बँगले के किसी तरु( अशोक?) पर कोइ चिड़िया कुऊकी
चलती सड़क के किनारे लाल बजरी पर चुरमुराये पाँव तले
ऊँचे तरुवर से गिरे
बड़े-बड़े पियराये पत्ते
कोई छह बजे सुबह जैसे गरम पानी से नहायी हो-
खिली हुई हवा आयी फिरकी-सी आयी, चली गयी।
ऐसे, फ़ुटपाथ पर चलते-चलते-चलते
कल मैंने जाना कि बसन्त आया।

और यह कैलेण्डर से मालूम था
अमुक दिन वार मदनमहीने कि होवेगी पंचमी
दफ़्तर में छुट्टी थी- यह था प्रमाण
और कविताएँ पढ़ते रहने से यह पता था
कि दहर-दहर दहकेंगे कहीं ढाक के जंगल
आम बौर आवेंगे
रंग-रस-गन्ध से लदे-फँदे दूर के विदेश के
वे नन्दनवन होंगे यशस्वी
मधुमस्त पिक भौंर आदि अपना-अपना कृतित्व
अभ्यास करके दिखावेंगे
यही नहीं जाना था कि आज के नग्ण्य दिन जानूंगा
जैसे मैने जाना, कि बसन्त आया।
- रघुवीर सहाय

बुधवार, 6 फ़रवरी 2019

बस इतना--अब चलना होगा - भगवतीचरण वर्मा


बस इतना--अब चलना होगा
फिर अपनी-अपनी राह हमें।

कल ले आई थी खींच, आज
ले चली खींचकर चाह हमें
तुम जान न पाईं मुझे, और
तुम मेरे लिए पहेली थीं;
पर इसका दुख क्या? मिल न सकी
प्रिय जब अपनी ही थाह हमें।

तुम मुझे भिखारी समझें थीं,
मैंने समझा अधिकार मुझे
तुम आत्म-समर्पण से सिहरीं,
था बना वही तो प्यार मुझे।

तुम लोक-लाज की चेरी थीं,
मैं अपना ही दीवाना था
ले चलीं पराजय तुम हँसकर,
दे चलीं विजय का भार मुझे।

सुख से वंचित कर गया सुमुखि,
वह अपना ही अभिमान तुम्हें
अभिशाप बन गया अपना ही
अपनी ममता का ज्ञान तुम्हें
तुम बुरा न मानो, सच कह दूँ,
तुम समझ न पाईं जीवन को
जन-रव के स्वर में भूल गया
अपने प्राणों का गान तुम्हें।

था प्रेम किया हमने-तुमने
इतना कर लेना याद प्रिये,
बस फिर कर देना वहीं क्षमा
यह पल-भर का उन्माद प्रिये।
फिर मिलना होगा या कि नहीं
हँसकर तो दे लो आज विदा
तुम जहाँ रहो, आबाद रहो,
यह मेरा आशीर्वाद प्रिये।
- भगवतीचरण वर्मा