मंगलवार, 27 अगस्त 2019

एक तुम हो - माखनलाल चतुर्वेदी

गगन पर दो सितारे: एक तुम हो,
धरा पर दो चरण हैं: एक तुम हो,
‘त्रिवेणी’ दो नदी हैं! एक तुम हो, 
हिमालय दो शिखर है: एक तुम हो, 
रहे साक्षी लहरता सिंधु मेरा, 
कि भारत हो धरा का बिंदु मेरा । 

कला के जोड़-सी जग-गुत्थियाँ ये, 
हृदय के होड़-सी दृढ वृत्तियाँ ये, 
तिरंगे की तरंगों पर चढ़ाते, 
कि शत-शत ज्वार तेरे पास आते । 

तुझे सौगंध है घनश्याम की आ, 
तुझे सौगंध भारत-धाम की आ, 
तुझे सौगंध सेवा-ग्राम की आ, 
कि आ, आकर उजड़तों को बचा, आ । 
तुम्हारी यातनाएँ और अणिमा, 
तुम्हारी कल्पनाएँ और लघिमा, 
तुम्हारी गगन-भेदी गूँज, गरिमा, 
तुम्हारे बोल! भू की दिव्य महिमा
तुम्हारी जीभ के पैंरो महावर, 
तुम्हारी अस्ति पर दो युग निछावर । 
रहे मन-भेद तेरा और मेरा, अमर हो देश का कल का सबेरा, 
कि वह कश्मीर, वह नेपाल; गोवा; कि साक्षी वह जवाहर, यह विनोबा,
प्रलय की आह युग है, वाह तुम हो, 
जरा-से किंतु लापरवाह तुम हो।

रचनाकाल: खण्डवा-१९४०

- माखनलाल चतुर्वेदी

शनिवार, 24 अगस्त 2019

मेरा रँग दे बसन्ती चोला ~ पीयूष मिश्रा

मेरा रँग दे बसन्ती चोला, माई...

मेरे चोले में तेरे माथे का पसीना है
और थोड़ी सी तेरे आँचल की बूँदें हैं
और थोड़ी सी है तेरे काँपते बूढ़े हाथों की गर्मी
और थोड़ा सा है तेरी आँखों की सुर्खी का शोला

इस शोले को जो देखा तो आज ये
लाल तेरा बोला अरे बोला --

मेरा रँग दे बसंती चोला, माई...

~ पीयूष मिश्रा

बुधवार, 21 अगस्त 2019

मैं कहीं और भी होता हूँ ~ कुंवर नारायण

मैं कहीं और भी होता हूँ
जब कविता लिखता

कुछ भी करते हुए
कहीं और भी होना
धीरे-धीरे मेरी आदत-सी बन चुकी है

हर वक़्त बस वहीं होना
जहाँ कुछ कर रहा हूँ
एक तरह की कम-समझी है
जो मुझे सीमित करती है

ज़िन्दगी बेहद जगह मांगती है
फैलने के लिए

इसे फैसले को ज़रूरी समझता हूँ
और अपनी मजबूरी भी
पहुंचना चाहता हूँ अन्तरिक्ष तक
फिर लौटना चाहता हूँ सब तक
जैसे लौटती हैं
किसी उपग्रह को छूकर
जीवन की असंख्य तरंगें...

~ कुंवर नारायण

शनिवार, 17 अगस्त 2019

बापू के प्रति - सुमित्रानंदन पंत

तुम मांस-हीन, तुम रक्तहीन,
हे अस्थि-शेष! तुम अस्थिहीन,
तुम शुद्ध-बुद्ध आत्मा केवल,
हे चिर पुराण, हे चिर नवीन!
तुम पूर्ण इकाई जीवन की,
जिसमें असार भव-शून्य लीन;
आधार अमर, होगी जिस पर
भावी की संस्कृति समासीन!
तुम मांस, तुम्ही हो रक्त-अस्थि,
निर्मित जिनसे नवयुग का तन,
तुम धन्य! तुम्हारा नि:स्व-त्याग
है विश्व-भोग का वर साधन।
इस भस्म-काम तन की रज से
जग पूर्ण-काम नव जग-जीवन
बीनेगा सत्य-अहिंसा के
ताने-बानों से मानवपन!
सदियों का दैन्य-तमिस्र तूम,
धुन तुमने कात प्रकाश-सूत,
हे नग्न! नग्न-पशुता ढँक दी
बुन नव संस्कृत मनुजत्व पूत।
जग पीड़ित छूतों से प्रभूत,
छू अमित स्पर्श से, हे अछूत!
तुमने पावन कर, मुक्त किए
मृत संस्कृतियों के विकृत भूत!
सुख-भोग खोजने आते सब,
आये तुम करने सत्य खोज,
जग की मिट्टी के पुतले जन,
तुम आत्मा के, मन के मनोज!
जड़ता, हिंसा, स्पर्धा में भर
चेतना, अहिंसा, नम्र-ओज,
पशुता का पंकज बना दिया
तुमने मानवता का सरोज!
पशु-बल की कारा से जग को
दिखलाई आत्मा की विमुक्ति,
विद्वेष, घृणा से लड़ने को
सिखलाई दुर्जय प्रेम-युक्ति;
वर श्रम-प्रसूति से की कृतार्थ
तुमने विचार-परिणीत उक्ति,
विश्वानुरक्त हे अनासक्त!
सर्वस्व-त्याग को बना भुक्ति!
सहयोग सिखा शासित-जन को
शासन का दुर्वह हरा भार,
होकर निरस्त्र, सत्याग्रह से
रोका मिथ्या का बल-प्रहार:
बहु भेद-विग्रहों में खोई
ली जीर्ण जाति क्षय से उबार,
तुमने प्रकाश को कह प्रकाश,
औ अन्धकार को अन्धकार।
उर के चरखे में कात सूक्ष्म
युग-युग का विषय-जनित विषाद,
गुंजित कर दिया गगन जग का
भर तुमने आत्मा का निनाद।
रंग-रंग खद्दर के सूत्रों में
नव-जीवन-आशा, स्पृह्यालाद,
मानवी-कला के सूत्रधार!
हर लिया यन्त्र-कौशल-प्रवाद।
जड़वाद जर्जरित जग में तुम
अवतरित हुए आत्मा महान,
यन्त्राभिभूत जग में करने
मानव-जीवन का परित्राण;
बहु छाया-बिम्बों में खोया
पाने व्यक्तित्व प्रकाशवान,
फिर रक्त-माँस प्रतिमाओं में
फूँकने सत्य से अमर प्राण!
संसार छोड़ कर ग्रहण किया
नर-जीवन का परमार्थ-सार,
अपवाद बने, मानवता के
ध्रुव नियमों का करने प्रचार;
हो सार्वजनिकता जयी, अजित!
तुमने निजत्व निज दिया हार,
लौकिकता को जीवित रखने
तुम हुए अलौकिक, हे उदार!
मंगल-शशि-लोलुप मानव थे
विस्मित ब्रह्मांड-परिधि विलोक,
तुम केन्द्र खोजने आये तब
सब में व्यापक, गत राग-शोक;
पशु-पक्षी-पुष्पों से प्रेरित
उद्दाम-काम जन-क्रान्ति रोक,
जीवन-इच्छा को आत्मा के
वश में रख, शासित किए लोक।
था व्याप्त दिशावधि ध्वान्त भ्रान्त
इतिहास विश्व-उद्भव प्रमाण,
बहु-हेतु, बुद्धि, जड़ वस्तु-वाद
मानव-संस्कृति के बने प्राण;
थे राष्ट्र, अर्थ, जन, साम्य-वाद
छल सभ्य-जगत के शिष्ट-मान,
भू पर रहते थे मनुज नहीं,
बहु रूढि-रीति प्रेतों-समान--
तुम विश्व मंच पर हुए उदित
बन जग-जीवन के सूत्रधार,
पट पर पट उठा दिए मन से
कर नव चरित्र का नवोद्धार;
आत्मा को विषयाधार बना,
दिशि-पल के दृश्यों को सँवार,
गा-गा--एकोहं बहु स्याम,
हर लिए भेद, भव-भीति-भार!
एकता इष्ट निर्देश किया,
जग खोज रहा था जब समता,
अन्तर-शासन चिर राम-राज्य,
औ’ वाह्य, आत्महन-अक्षमता;
हों कर्म-निरत जन, राग-विरत,
रति-विरति-व्यतिक्रम भ्रम-ममता,
प्रतिक्रिया-क्रिया साधन-अवयव,
है सत्य सिद्ध, गति-यति-क्षमता।
ये राज्य, प्रजा, जन, साम्य-तन्त्र
शासन-चालन के कृतक यान,
मानस, मानुषी, विकास-शास्त्र
हैं तुलनात्मक, सापेक्ष ज्ञान;
भौतिक विज्ञानों की प्रसूति
जीवन-उपकरण-चयन-प्रधान,
मथ सूक्ष्म-स्थूल जग, बोले तुम--
मानव मानवता का विधान!
साम्राज्यवाद था कंस, बन्दिनी
मानवता पशु-बलाक्रान्त,
श्रृंखला दासता, प्रहरी बहु
निर्मम शासन-पद शक्ति-भ्रान्त;
कारा-गृह में दे दिव्य जन्म
मानव-आत्मा को मुक्त, कान्त,
जन-शोषण की बढ़ती यमुना
तुमने की नत-पद-प्रणत, शान्त!
कारा थी संस्कृति विगत, भित्ति
बहु धर्म-जाति-गत रूप-नाम,
बन्दी जग-जीवन, भू-विभक्त,
विज्ञान-मूढ़ जन प्रकृति-काम;
आए तुम मुक्त पुरुष, कहने--
मिथ्या जड़-बन्धन, सत्य राम,
नानृतं जयति सत्यं, मा भैः
जय ज्ञान-ज्योति, तुमको प्रणाम!

रचनाकाल: अप्रैल’१९३६

~ सुमित्रानंदन पंत

शुक्रवार, 16 अगस्त 2019

प्रार्थना : गुरु कबीरदास के लिए ~ विजयदेव नारायण साही

परम गुरु
दो तो ऐसी विनम्रता दो
कि अंतहीन सहानुभूति की वाणी बोल सकूँ
और यह अंतहीन सहानुभूति
पाखंड न लगे।

दो तो ऐसा कलेजा दो
कि अपमान, महत्वाकांक्षा और भूख
की गाँठों में मरोड़े हुए
उन लोगों का माथा सहला सकूँ
और इसका डर न लगे
कि कोई हाथ ही काट खाएगा।

दो तो ऐसी निरीहता दो
कि इसे दहाड़ते आतंक क बीच
फटकार कर सच बोल सकूँ
और इसकी चिन्ता न हो
कि इसे बहुमुखी युद्ध में
मेरे सच का इस्तेमाल
कौन अपने पक्ष में करेगा।

यह भी न दो
तो इतना ही दो
कि बिना मरे चुप रह सकूँ।

~ विजयदेव नारायण साही

गुरुवार, 15 अगस्त 2019

तेरा नाम नहीं ~ निदा फ़ाज़ली

तेरे पैरों चला नहीं जो 
धूप छाँव में ढला नहीं जो 
वह तेरा सच कैसे, 
जिस पर तेरा नाम नहीं?

तुझसे पहले बीत गया जो 
वह इतिहास है तेरा 
तुझको हीं पूरा करना है 
जो बनवास है तेरा 
तेरी साँसें जिया नहीं जो 
घर आँगन का दिया नहीं जो 
वो तुलसी की रामायण है 
तेरा राम नहीं.

तेरा हीं तन पूजा घर है 
कोई मूरत गढ़ ले 
कोई पुस्तक साथ न देगी 
चाहे जितना पढ़ ले 
तेरे सुर में सजा नहीं जो 
इकतारे पर बजा नहीं जो 
वो मीरा की संपत्ति है 
तेरा श्याम नहीं.

~  निदा फ़ाज़ली

सोमवार, 12 अगस्त 2019

हरी घाटी - पूर्णिमा वर्मन

फिर नदी की बात सुन कर
चहचहाने लग गई है
यह हरी घाटी हवा से बात कर के
लहलहाने लग गई है
झर रहे 
झरने हँसी के
उड़ रहे तूफ़ान में स्वर
रेशमी दुकूल जैसे
बादलों के चीर नभ पर
और धरती रातरानी को 
सजाने लग गई है
यह हरी घाटी हवा से बात कर के
महमहाने लग गई है
गाड़ कर
पेड़ों के झंडे
बज रहे वर्षा के मादल
आँजती वातायनों की
चितवनों में सांझ काजल
और बूँदों की मधुर आहट
रिझाने लग गई है
यह हरी घाटी हवा से बात कर के
गुनगुनाने लग गई है
- पूर्णिमा वर्मन



शुक्रवार, 9 अगस्त 2019

ऐ बादल! - श्रीप्रकाश शुक्ल

उतरो, उतरो, ऐ बादल!
जैसे उतरता है माँ के सीने में दूध
बच्चे के ठुनकने के साथ

हवाओं में सुगंध बिखेरो
पत्तों को हरियाली दो 
धरती को भारीपन 
कविता को गीत दो

ऐ आषाढ़ के बादल!
बीज को वृक्ष दो
वृक्षों को फूल दो
फूल को फल दो

बहुत उमस है
मेढ़क को स्वर दो
पखियारी को उडा़न दो
जुगनू को अंधेरा!

जल्दी करो, मेरे यार!
भूने जाते चने की तरह
फट रहे किसानों को  
अपनी चमक से
थोड़ी गमक दो
और थोड़ा नमक भी ।

- श्रीप्रकाश शुक्ल