रविवार, 28 जुलाई 2019

साँझ के बादल - धर्मवीर भारती

ये अनजान नदी की नावें 
जादू के-से पाल 
उड़ाती 
आती  
मंथर चाल।

नीलम पर किरनों 
की साँझी 
एक न डोरी 
एक न माँझी ,
फिर भी लाद निरंतर लाती 
सेंदुर और प्रवाल!

कुछ समीप की 
कुछ सुदूर की,
कुछ चन्दन की 
कुछ कपूर की,
कुछ में गेरू, कुछ में रेशम 
कुछ में केवल जाल।

ये अनजान नदी की नावें 
जादू के-से पाल 
उड़ाती 
आती  
मंथर चाल।

- धर्मवीर भारती

9 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" में मंगलवार 30 जुलाई 2019 को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (30-07-2019) को charchamanch.blogspot.in/" > "गर्म चाय का प्याला आया" (चर्चा अंक- 3412) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. पाठ्यक्रम में पढ़ी मोहक रचना दिल लुभा गई।
    सुंदर सरस भावमय रचना।

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  4. वाह! क्या लिखा है आपने। अद्भूत।
    साँझ के बादल का पूरा दृश्य प्रकट कर दिया है आपने।
    लयबद्ध है पूरी रचना।

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