सोमवार, 1 जुलाई 2019

अनसुने अध्यक्ष हम - किशन सरोज

बाँह फैलाए खड़े, 
निरुपाय, तट के वृक्ष हम
ओ नदी! दो चार पल, ठहरो हमारे पास भी ।

चाँद को छाती लगा
फिर सो गया नीलाभ जल
जागता मन के अंधेरों में
घिरा निर्जन महल

और इस निर्जन महल के 
एक सूने कक्ष हम
ओ भटकते जुगनुओ! उतरो हमारे पास भी ।

मोह में आकाश के
हम जुड़ न पाए नीड़ से
ले न पाए हम प्रशंसा-पत्र
कोई भीड़ से

अश्रु की उजड़ी सभा के, 
अनसुने अध्यक्ष हम
ओ कमल की पंखुरी! बिखरो हमारे पास भी ।

लेखनी को हम बनाए
गीतवंती बाँसुरी
ढूंढते परमाणुओं की
धुंध में अलकापुरी

अग्नि-घाटी में भटकते, 
एक शापित यक्ष हम
ओ जलदकेशी प्रिये! सँवरो हमारे पास भी ।

 - किशन सरोज

1 टिप्पणी:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (03-07-2019) को "मेघ मल्हार" (चर्चा अंक- 3385) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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