Art by Ravindra Bhardvaj |
स्वप्न में लगी चोट का उपचार नींद के बाहर खोजना चूक है
होना तो यह था
कि तुम अपने दिल की एक नस निकालते
और बांध देते मेरी लहूलुहान उंगली पर
मेरी हंसली पर जमा पानी उलीचते
और रख देते वहां धूप मुट्ठी भर
हुआ यह कि जिन पर्वतों पर मैंने तुम्हारा नाम उकेरा
वहां से बह निकलीं कल कल करती नदियां
और मेरी गर्दन से जा चिपकी काग़ज़ की एक नाव
क्षितिज तक पैदल चली थी थाम कर तुम्हारी उंगली
उस दिन तुम्हारा क़द मेरे पिता जितना बढ़ गया था
उसी रात नदी में अपनी पतवारें फेंक आई थी
ईश्वर की प्रिय सन्तान हो
छुटपन से ही मां मुझसे कहती आई हैं
होना तो यह था
कि कबाड़ में मिले उस दीपक को धरती पर घिसते ही
धुएं के पीछे से प्रकट हो जाता कोई देवदूत
और मेरे आदेश का दास बन जाता
हुआ यह कि पत्थर पर रगड़ खाने से कांसे की देह पीड़ा से कराह उठी
ऐन उसी दिन कान के पीछे उभर आई एक हरी बेल
कोई रंग होता ‘माइग्रेन’ का तो हरा ही होता
कितना अच्छा लगता था दीवारों पर लिखना और पौधों को पानी देना
होना तो यह था कि तुम्हारी पीठ पर नक़्क़ाशीदार आयतें लिखा करती हमेशा
और छाती को सींचती ही रहती उम्र भर
हुआ यह कि छठी की चांद रातों में मैंने उगाए जूठे सेब तुम्हारी छाती पर
और तुम्हारी पीठ से टकरा टकरा कर लौटती रहीं मेरी चीख़ें
उन दिनों जंगल टेसू की तरह दहका करते थे
मैं तुम्हारे पांव के अंगूठे पर टोटके बांधा करती थी
एक बार उतरने दो मेरी चीख़ अपनी छाती पर
किसी बरगद के कान पर उसी दिन
मैं कान के पीछे वाली नस की असह्य पीड़ा का विसर्जन कर दूंगी
एक अरसा गुज़रा
जब डॉक्टर ने ‘मायोपिया’ से लेकर इथियोपिया तक की बातें कीं
और आंखों पर ऐनक चढ़वा दी
होना तो यह था कि उन ग्लासेज़ को पहन कर
अब तक मुझे दूर का दिखने लगना था
पर हुआ यह कि ये चश्मा भी मेरे किसी काम का न निकला.
पहले तो रास्ते ही नहीं दिखते थे
और अब बड़े-बड़े गड्ढे और जानलेवा मोड़ भी नज़र नहीं आते.
होना तो यह था
कि तुम होते बरगद का घनापन
और मैं तुम्हारी शाख़ों पर फुदकती फिरती
अपनी टुकुर-टुकुर आंखों में भर लेती सब हरियाली
कभी पत्तों में छुपती कभी दिखती तने के पीछे
सारी छांव घूंट-घूंट पी लेती
हुआ यह कि तमीज़ भूल गया एक बरगद
अपने बरगद होने की
छांव, हरियाली, ठौर कुछ भी नहीं मिलता
धूप धूप भटकता रहा प्रेम भूखे
कौर कौर दिल कुतरता रहा
-बाबुषा कोहली
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